आडंबर के बंधक बने धार्मिक संस्कार

प्रेम चंद माहिल

लेखक, भोरंज, हमीरपुर से हैं

मैं सनातन धर्म का अनुयायी हूं और सनातन धर्म के धर्म नियमों का कट्टर समर्थक हूं। अपने धर्म के हर धार्मिक संस्कारों पर पूर्ण विश्वास करके उनका गहन अध्ययन किया। इस मंथन के परिणाम में पाया कि इसमें रूढि़वादिता के कारण बहुत ज्यादा आडंबर दिखता है। इस पर मेरे धर्म गुरुओं को मंथन करना होगा…

हर धर्म में धार्मिक संस्कारों को महत्त्व दिया गया है। धार्मिक संस्कारों को विधिवत करवाने की जिम्मेदारी गुरुओं ने ले रखी है, परंतु समय और आवश्यकता अनुसार उसमें संशोधन अति आवश्यक है। इस ओर धार्मिक गुरुओं का ध्यान दिलाना हमारा उद्देश्य है। यह अलग विषय है कि रूढि़वादितावश वे इस ओर कम ध्यान देते हैं। मैं हर धर्म एवं धर्म गुरुओं का सम्मान करता हूं। मैं सनातन धर्म का अनुयायी हूं और सनातन धर्म के धर्म नियमों का कट्टर समर्थक हूं। अपने धर्म के हर धार्मिक संस्कारों पर पूर्ण विश्वास करके उनका गहन अध्ययन किया। इस मंथन के परिणाम में पाया कि इसमें रूढि़वादिता के कारण बहुत ज्यादा आडंबर दिखता है। इस पर मेरे धर्म गुरुओं को मंथन करना होगा। आडंबर की वजह से लोगों की धार्मिक आस्था घटती जा रही है, जो धर्महित में नहीं है।

जब बच्चा पैदा होता था, उसका एक साल बाद जन्मदिन मनाया जाता  था। हमीरपुर में इस अवसर को पंजाप के नाम से जाना जाता है। अधिकतर पंजाप का खर्चा बच्चे के मामा को वहन करना पड़ता था, जिसे मंडी में लुगड़ू कहते हैं। लड़के का जन्मदिन मनाया जाता था और लड़कियों को केवल मौन दर्शक बनाया जाता था, जो घोर अपराध था। अब हर साल जन्मदिन की पार्टी का आयोजन भी प्रचलित हो चुका है, परंतु अभी भी लड़कियों का जन्मदिन मनाया जाना जरूरी नहीं समझा जाता। पंडित जी आते हैं, उनके सामने केक कटता है। हद तो तब हो जाती है जब बच्चा चारों तरफ तोहफे लेने के लिए घूमता है। भेंटों के अंबार लग जाते हैं, परंतु धर्मगुरु मौन बैठा दृश्य देखता है। यदि वह लोगों को समझाए कि इस कद्र भेंट लेने हेतु बच्चे को घुमाना बच्चे के स्वावलंबी विचाराधारा पर कुठाराघात है, तो भी इस समारोह की पवित्रता कुछ हद तक बच सकती है। आज जन्मदिन समारोह रिश्वतखोरी के लिए मंच बना दिख रहा है। इस बात पर मंथन करना धर्मगुरुओं का नैतिक कर्त्तव्य है। जब लड़का-लड़की की शादी का संस्कार होता है, तो पंडित जी जन्मपत्री का मिलान करते हैं। अंतरजातीय शादी का हमारे धर्मगुरु विरोध करते हैं, जो कि निंदनीय है। जन्मपत्री मिलान को अत्यधिक महत्त्व देना, लेकिन विचारों के मिलान को महत्त्वहीन समझना बच्चों के साथ घोर अन्याय है। परिणामस्वरूप बच्चे भाग कर शादी के बंधन में बंधने के लिए विवश हो रहे हैं। इस बात पर हमारे धार्मिक गुरुओं को मंथन करना आवश्यक है।

भारतवर्ष में तलाक का नाम नहीं होता था। शादी बंधन में बंध जाने के पश्चात लोग प्यार से जीवनयापन करते थे। कारण था सनातन धर्म के नियम अनुसार शादी का संस्कार। लोगों में धारणा थी कि अग्नि के सामने सात वचन देकर सात फेरे लिए हैं। सात जन्म तक दांपत्य जीवन निभाएंगे। परिणामस्वरूप शादी विच्छेदन नहीं होता था। पाश्चात्य देशों ने भी इसकी सराहना की और अपनाने का प्रयत्न किया। इसलिए सनातन धर्म के धार्मिक उपदेश पूजनीय हैं, परंतु विडंबना इस बात पर दिखती है कि शादी संस्कार से पंडित जी वर-वधू के लिए सात वचन पढ़ता है। वर-वधू मूकदर्शक दिखते हैं। वचन वर-वधू ने निभाने है पंडित जी ने नहीं, फिर उनकी स्वीकृति क्यों आवश्यक नहीं समझी जाती? मेरी पंडित वर्ग से करबद्ध प्रार्थना है कि वचनों की एक-एक सूची लिखित में वर-वधू के पास दी जाए। शादी में जयमाला का रिवाज प्रचलित हो चुका है, जो प्रशंसनीय बात है, परंतु जयमाला मंडप में वर-वधू को बिठाया जाता है, लोग बारी-बारी उनके पीछे आते हैं, उन्हें आशीर्वाद देते हैं। नोटों की मुट्ठियां भर पकड़ाते हैं। धारणा है कि मुकुटधारी वर विष्णु रूप है तथा वधू लक्ष्मी रूप है। जिसके घर जाएगी, धन-धान्य देगी। फिर विष्णु, लक्ष्मी रूप को आशीर्वाद देना आपके क्षेत्राधिकार में नहीं है। यह तो धन बटोरने का माध्यम ज्यादा दिखता है। निर्धन व्यक्ति दुखित होता है। अतः इस परिपाटी पर मंथन करना धर्म गुरुओं का परम धार्मिक कर्त्तव्य है।

जब प्राणी अंतिम सांस लेता है, तो उसके बाद जो संस्कार किया जाता है, उसे मृत संस्कार कहते हैं। पंडित जी आते हैं एक दीया जलाते हैं और उसे किसी मिट्टी के बरतन से ढक देते हैं। नौ दिन तक उसका निरंतर जलना अनिवार्य समझा जाता है। धारणा यह है कि प्राचीनकाल में रोशनी का प्रावधान नहीं था, आबादी बहुत कम थी। लोग भूत-प्रेतों पर विश्वास रखते थे। इसलिए नौ दिन तक लोक मृत प्राणी के घर सोते थे। अंधेरे में डर लगता था। घर में पैदा सरसों का तेल जलाकर किसी ने प्रकाश का आविष्कार किया। धीरे-धीरे परिपाटी चल पड़ी, परंतु आज जमाना बदल चुका है। आज उस परिपाटी पर चलना तर्कसंगत नहीं लग रहा है। लोगों में सामूहिकता की भावना का लोप हो रहा है। लोग अपने-अपने घर सोते हैं जो एक निंदनीय बात है, परंतु निरर्थक दीया जलाना और बरतन से ढक कर रखना पूर्णतया तर्कहीन है। तेरहवें दिन मृत प्राणी के घर जो संस्कार होता है, उसमें आस-पड़ोस, संबंधीगण को सहभोज दिया जाता है। प्रबंध करना, शोकग्रस्त परिवार के लिए मुश्किलें बढ़ाता है। इस पर मंथन कीजिए। सनातन धर्म के धर्म ग्रंथों में हमें धार्मिक मंत्र मिले हैं, वे हमारी धरोहर संपत्ति कहलाते हैं। मंत्र को समझना और उसके द्वारा दिशा-निर्देश पर जीवनयापन करना, मंत्र की वास्तविक आराधना है। यही संदेश हमारे धर्मगुरुओं को जन-जन तक पहुंचाना चाहिए। धार्मिक आस्था रखना एक पुनीत कार्य है, पर धार्मिक आडंबरता पर विश्वास करना निराधार और निरर्थक है।