आत्म पुराण

हे जनक! जिस प्रकार कोई अनजान बालक अपने मुंह को तरह-तरह से बनाता है, तो उसी का प्रतिबिंब सामने रखे दर्पण में दिखाई देता है, उसी प्रकार यह मन भी संसार संबंधी अनेक विक्रियाएं और उनका प्रतिबिंब सामने रखे आत्म रूपी दर्पण में देखता है, तो वह उसे आत्मा का ही काम मान लेता है।

शंका-हे भगवन! यह मन तो जड़ा है! इसके द्वारा नाना प्रकार की विक्रयाओं का होना कैसे संभव है।

समाधान-जैसे खट्टे रस वाले नींबू आदि पदार्थों को देखकर पास बैठे मनुष्य के मुंह में भी पानी भर आता है, उसी प्रकार स्वप्रकाश चैतन्य आत्मा भी अपनी समीपता मात्र से जड़ मन को तरह-तरह की विक्रियाओं में प्रवृत्त कर देता है।

शंका-हे भगवन! आत्मा को तो असंग कहा है, वह मन में क्षोभ क्यों पैदा करेगा?

समाधान-हे भगवन! यद्यपि असंक आत्मा के लिए मन में क्षोम करने का कोई कारण नहीं होता, तो भी अचिन्त्य शक्ति अज्ञातपूर्वक असंग आत्मा में भी क्षोभ का कारण पैदा कर देती है।

हे जनक! जैसे स्वप्न में यह आत्मा जीवों में मन उत्पन्न कर देती हैं, वैसे ही इस विषय में भी आत्मा मन को क्षुभित करती है।

शंका-हे भगवन! स्वप्न में जिस प्रकार आत्मा एक मन से अनेक मनों की उत्पत्ति करती है, तो उस प्रधान मन की भी किसी अन्य मन से उत्पत्ति माननी पड़ेगी। इससे अनवस्था दोष पैदा हो जाएगा।

समाधान-हे जनक! हम मन से मन की उत्पत्ति नहीं बतलाते, उसमें अवश्य अनवस्था दोष पैदा होगा, परंतु जैसे संसार में से बीजों को नष्ट हुआ देखकर पृथु राजा ने पृथ्वी की प्रेरणा की थी और उसे मानकर पृथ्वी ने बीजों को उत्पन्न कर दिया था।

उस समय वे बीज दूसरे बीजों से पैदा नहीं हुए थे, किंतु जिन बीजों को पृथ्वी ने अपने भीतर लय कर किया है, वे ही बीज फिर बाहर निकल आए। वैसे ही नए मन की उत्पत्ति पुराने मन से नहीं होती, किंतु मूल ज्ञान से युक्त आत्मा ही मन का कारण होती है। वह मूल ज्ञान अनादि होता है, इसलिए उसकी उत्पत्ति के लिए अन्य ज्ञान की आवश्यकता नहीं होती। वास्तव में यह अज्ञानयुक्त आत्मा मन आदि जगत की उत्पत्ति, स्थिति लय का कारण हुआ करती है। शंका-हे जनक! अज्ञान के कारण यह आत्मा किस प्रकार विपरीत भाव को प्राप्त होती है।

समाधान- हे जनक! जैसे कोई दरिद्री भिक्षुक किसी माया से प्रभावित होकर अपने को राजा समझने लगता है और इसी प्रकार कोई राजा अज्ञान में पड़कर भिक्षुक की तरह बन जाता है, उसी प्रकार यह ब्रह्मरूप आत्मा भी अपने वास्तविक रूप से अज्ञान से स्थूल-सूक्ष्म रूप जगत को प्राप्त होती है।

शंका- हे भगवान! अज्ञान के कारण आत्मा को यद्यपि जगत-भाव प्राप्त होना संभव है, तो भी अज्ञान के कारण जन्म-मरण कैसे संभव हो सकता है। समाधान – जैसे वर्तमान समय में जन्म-मरण से रहित यह पुरुष अपने स्वरूप के अज्ञान से स्वप्नावस्था में जन्म-मरण को प्राप्त होता है, वैसे ही जाग्रत अवस्था में भी यह जन्म-मरण से रहित आनंद स्वरूप आत्मा अपने  स्वरूप को न जानकर जन्म-मरण को प्राप्त होती है। इससे अपने स्वरूप को अज्ञान को ही जन्म-मरण का कारण माना जाएगा।

शंका- हे भगवान! जिस प्रकार श्रुति में आत्मा को ज्योति कहा है, वैसे ही मन को भी ज्योति कहा है। इससे क्या आत्मा की तरह मान भी स्वप्रकाश है?