आत्म पुराण

समाधान- हे जनक! यह मन आत्मा को प्रकाश में लाता है, इस विचार में श्रुति ने इसको ज्योति नहीं माना है, वरन घट, पर आदि बाह्य पदार्थों को प्रकाशित करने में यह अपनी आतंरिक वृत्ति द्वारा सहायक होता है। इससे श्रुति ने इसे ज्योति कह दिया है।

शंका- श्रुति में भेद शून्य अवस्था को सुख का लक्षण कहा है, सो वह कैसे संभव होता है।

समाधान – सुषुप्ति तथा समाधि अवस्था में भेद दर्शन की वृत्ति नहीं रहती, तो उस समय दुख का अनुभव बिलकुल नहीं होता, सुख ही जान पड़ता है।

शंका- सुषुप्ति और समाधि में जो सुख है, उसे भेद शून्य कहा जा सकता है, पर वह स्वप्रकाश आनंद रूप है, इसका क्या प्रमाण है?

समाधान- स्वप्रकाश रूप सुख का जो पीछे वर्ण किया गया है, अगर वह वास्तव में सुख रूप न हो तो जैसे सुषुप्ति तथा समाधि में लोगों को दुख का अनुभव नहीं होता, वैसे ही सुख का अनुभव भी नहीं होना चाहिए। पर हम जानते हैं कि सुषुप्ति और समाधि में सुख होता है। इससे स्वप्रकाश ज्ञान को सुख रूप माना गया है। इसलिए सब जीवों को सुषुप्ति के स्वप्नकाश में ज्ञान रूप आनंद की इच्छा होती है।

शंका- सुषुप्ति में जो सब जीवों की इच्छा होती है, वह सुख प्राप्ति के लिए नहीं होती। किंतु सुषुप्ति में सब दुखों का अभाव हो जाता है। इसलिए सुषुप्ति स्वप्रकाश ज्ञान से सुख का अभेद मानना व्यर्थ ही है।

समाधान – सुषुप्ति अवस्था में जैसे स्वप्रकाश ज्ञान सुख रूप है, वैसे ही दुख का अभाव रूप भी है। क्योंकि सुषुप्ति में जो दुखाभाव होता है, वह अगर स्वप्रकाश ज्ञान से भिन्न और पृथक होता, तो दुख भाव का विचार व्यर्थ हेगा।

जनक— याज्ञवल्क्य का इतना संवाद कथन करके गुरु ने शिष्य को समझाया कि हे शिष्य! इस प्रकार याज्ञवल्क्य ने स्वप्नावस्था में एक आत्मा को ही स्वयं ज्योति बतलाया, क्योंकि उस समय सूर्य, चंद्रमा, अग्नि और वाक्, यह चारों प्रकार को ज्योतियां लोप हो जाती हैं। पर आत्मा रूप ज्योति किसी अवस्था में लय नहीं होती। वह सब अवस्थाओं में साक्षी रूप से विद्यमान रहती है। इससे स्वप्न-काल में आत्मा रूपी ज्योति से ही गमनागमन सब कार्य संभव हो जाते हैं। हे शिष्य इस शरीर रूपी संघात का आत्मा ही ज्योति है, इस प्रकार उपदेश देकर शरीर से भिन्न आत्मा का उपदेश किया। पर जनक उसे अच्छी तरह समझ न सका और उसने पुनः याज्ञवल्क्य से अपना विचार प्रकट किया।

जनक-हे  भगवन! इस देह में जो इंद्रिय, प्राण, अंतःकरण आदि अनेक तथ्य हैं, उनमें से आत्मा कौन है?

याज्ञवल्क्य-हे जनक! जिसको सब लोेक आत्मा या चेतन कहकर बतलाते हैं, वह सब प्राणियों को विदित है। जैसे घड़ा, वस्त्र आदि पदार्थ दृश्यमान होने से आत्मा नहीं है, उसी प्रकार देह, इंद्रियां, प्राण आदि दृश्य होने से आत्मा नहीं हो सकते, लेकिन इस सब दृश्य पदार्थों से अलग और इनका सब का अधिष्ठान जो चेतन तत्त्व है, वही स्वयं ज्योति आत्मा है और हे जनक! आत्मा के ज्ञान के लिए दूर जाने की जरूरत नहीं, किंतु जिस ज्ञान से तुमने यह प्रश्न किया है, उस ज्ञान से ही आत्मा का परिचय मिल सकता है, क्योंकि जैसे दुनिया में विवाद करने वाले पुरुष रूप साख्य से साक्षी पुरुष भिन्न होता है, उसी प्रकार देह,  इंद्रिय, प्राण, अंतःकरण रूप साक्ष्य से जो भिन्न रहकर अवस्थित है, वही आत्मा है। इस प्रकार याज्ञवल्क्य ने जनक राजा को सामान्य संघात से भिन्न आत्मा का उपेदश दिया। अब संघात के जो पृथक-पृथक घटक हैं, उनसे भिन्न आत्मा को सिद्ध करते हैं।