ध्यान का अर्थ

ओशो

ध्यान के संबंध में थोड़ी सी बातें समझ लेनी जरूरी हैं। क्योंकि बहुत गहरे में तो समझ का ही नाम ध्यान है। ध्यान का अर्थ है समर्पण। ध्यान का अर्थ है अपने को पूरी तरह छोड़ देना परमात्मा के हाथों में। ध्यान कोई क्रिया नहीं है, जो आपको करनी है। ध्यान का अर्थ है कुछ भी नहीं करना है और छोड़ देना है उसके हाथों में, जो कि सचमुच ही हमें संभाले हुए हैं। परमात्मा का अर्थ है मूल स्रोत, जिससे हम आते हैं और जिसमें हम लौट जाते हैं, लेकिन न तो आना हमारे हाथ में है और न लौटना हमारे हाथ में है। हमें पता नहीं चलता, कब हम आते हैं और कब लौट जाते हैं। ध्यान, जानते हुए लौटने का नाम है। इस समर्पण की बात समझने के लिए हम तीन छोटे-छोटे प्रयोग करेंगे, ताकि यह समर्पण की बात पूरी समझ में आ जाए समर्पण को भी समझने के लिए सिर्फ  समझ लेना जरूरी नहीं है, करना जरूरी है, ताकि हमें ख्याल में आ सके कि क्या अर्थ हुआ समर्पण का। ध्यान विलीन होने की क्रिया है, अपने को खोने की, उसमें जो हमारा मूल स्रोत है। जैसे कोई बीज टूट जाता है और वृक्ष हो जाता है, ऐसे ही जब कोई मनुष्य टूटने की हिम्मत जुटा लेता है, तो परमात्मा हो जाता है। मनुष्य बीज है, परमात्मा वृक्ष है। हम टूटें तो ही वह हो सकता है। जैसे कोई नदी सागर में खो जाती है, लेकिन नदी सागर में खोने से इनकार कर दे, तो फिर नदी ही रह जाती है और सागर में खोने से इनकार कर दे, तो नदी भी नहीं रह जाती, तालाब हो जाती है, बंधा हुआ डबरा हो जाती है। क्योंकि जो सागर में खोने से इनकार करेगा, उसे बहने से भी इनकार करना होगा। क्योंकि सब बहा हुआ अंततः सागर में पहुंच जाता है, सिर्फ  रुका हुआ नहीं पहुंचता है। डबरे सिर्फ  सूखते हैं और सड़ते हैं। सागर का महाजीवन उन्हें नहीं मिल पाता। हम सब भी डबरों की तरह हो जाते हैं, क्योंकि हम सबकी वे जीवन सरिताएं परमात्मा के सागर की तरफ नहीं बहती हैं और बह केवल वही सकता है, जो अपने से विराट में लीन होने को तैयार है। जो डरेगा लीन होने से, वह रुक जाएगा, ठहर जाएगा, जम जाएगा, बहना बंद हो जाएगा। जिंदगी बहाव है रोज और महान से महान की तरफ  जिंदगी यात्रा है और विराट की मंजिल की तरफ, लेकिन हम सब रास्तों पर रुक गए हैं, मील के पत्थरों पर। ध्यान इन बहावों को वापस पैदा कर लेने की आकांक्षा है। यह बड़ा उल्टा है। वर्षा होती है पहाड़ों पर, तो बड़े-बड़े शिखर खाली रह जाते हैं, क्योंकि वे पहले से ही भरे हुए हैं और खड्ड और खाइयां भर जाती हैं, झीलें भर जाती हैं, क्योंकि वे खाली हैं। जो भरा है वह खाली रह जाएगा, जो खाली है वह भर जाएगा। परमात्मा की वर्षा तो प्रतिपल हो रही है। सब तरफ  वही बरस रहा है, लेकिन हम अपने भीतर भरे हुए हैं, तो खाली रह जाते हैं। काश! हम भीतर गड्ढों की तरह खाली हो जाएं, तो परमात्मा हम में भर सकता है। हम तब उसके भराव को उपलब्ध हो सकते हैं।  यह बहुत उल्टा है, लेकिन यही सही है। जो भरे हैं, वे खाली रह जाएंगे और जो खाली हैं, वे भर जाते हैं। इसलिए ध्यान का दूसरा अर्थ है खाली हो जाना, बिलकुल खाली हो जाना है, कुछ भी नहीं बचाना है। मिटने का, समर्पण का, खाली होने का सबका एक ही अर्थ है। ध्यान की आधार शिला अक्रिया है, क्रिया नहीं है, लेकिन शब्द ध्यान से लगता है कि कोई क्रिया करनी होगी। जबकि जब तक हम कुछ करते हैं, तब तक ध्यान में न हो सकेंगे। जब हम कुछ भी नहीं कर रहे हैं तब जो होता है, वही ध्यान है। ध्यान हमारा न करना है, लेकिन मनुष्य जाति को एक बड़ा गहरा भ्रम है कि हम कुछ करेंगे तो ही होगा। हम कुछ न करेंगे तो कुछ न होगा।