भारत में संसदीय संस्थाओं का विकास

गतांक से आगे…

प्रभुसत्ता एक बहुत बड़ी सभा में निहित रहती है और उसी सभा के सदस्य न केवल कार्यपालिका के सदस्यों को बल्कि सैनिक प्रमुखों को भी चुना करते थे। वही वैदेशिक कार्यों पर नियंत्रण रखती थी और युद्ध जैसे मामलों का फैसला भी करती थी। इसके अतिरिक्त कार्यपालिका पर निर्वाचित सभा का पूर्ण नियंत्रण रहता था। पाली में लिखित ग्रंथों में इस विषय में दिलचस्प ब्यौरे मिलते हैं कि प्राचीन गणराज्यों में सभाओं में क्या- क्या प्रथाएं एवं प्रक्रियाएं अपनाई जाती थीं, जो कुछ विद्वानों के अनुसार आधुनिकतम स्वरूप के विधि एवं संवैधानिक सिद्धांतों पर आधारित थीं। उदाहरण के तौर पर  सभा का अपना अध्यक्ष हुआ करता था, जिसे विनयधर कहा जाता था और सचेतक भी हुआ करता था जिसे गणपूरक कहा जाता था। विनयधर संकल्प, पूर्ति का अभाव बहुमत द्वारा मतदान इत्यादि जैसे प्रक्रियागत उपायों एवं शब्दावली से परिचित होता था। सभा में चर्चाएं स्वतंत्र, स्वच्छ एवं निर्बाध हुआ करती थीं। मतदान शलाकाओं (टिकटों) द्वारा होता था, जो विभिन्न मतों का प्रतिनिधित्व करने वाली भिन्न- भिन्न रंगों की लकड़ी की पट्टियां होती थीं। जटिल और गंभीर मामले प्रायः सभा के सदस्यों में से चुनी गई विशेष समिति के पास भेजे जाते थे। निचले स्तर पर लोकतंत्र प्रादेशिक परिषदों, नगर परिषदों और ग्राम सभाओं के रूप में विद्यमान था। ये निकाय स्थानीय कार्यों की देखरेख पूरी स्वाधानीता से करते थे, जिसमें स्थानीय उपक्रम एवं स्वशासन का तत्त्व रहता था। अर्थशास्त्र महाभारत और मनुस्मृति में ग्राम संघ विद्यमान होने का अनेक  स्थानों पर उल्लेख मिलता है। उन दिनों ग्राम सभाओं ग्राम संघों अथवा पंचायतों जैसे निर्वाचित स्थानीय निकाय साधारणतया भारतीय राजनीति व्यवस्था के अंग होते थे। सभा तथा समिति जैसी लोकतंत्रात्मक संस्थाएं तथा गणराज्य तो बाद में लुप्त हो गए परंतु ग्राम स्तर पर  ग्राम संघ ग्राम सभाएं अथवा पंचायतें अनेक हिंदू तथा मुस्लिम राजवंशों के शासन काल में अस्तित्व में रहीं तथा ब्रिटिश शासकों के आगमन तक और उसके पश्चात भी किसी न किसी रूप में प्रभावी संस्थाओं  के रूप में कार्य करती रहीं तथा फलती फूलती रहीं।

आधुनिक संसदीय संस्थाओं का उद्भव

आधुनिक अर्थों में संसदीय शासन प्रणाली एवं विधायी संस्थाओं का उद्भव विकास लगभग दो शताब्दियों तक ब्रिटेन के साथ भारत के संबंधों से जुड़ा हुआ है। परंतु यह मान लेना गलत होगा कि बिलकुल ब्रिटेन जैसी संस्थाएं किसी समय भारत में प्रतिस्थापित हो गईं। जिस रूप में भारत की संसद और संसदीय संस्थाओं को आज हम जानते हैं, उनका विकास भारत में ही हुआ है। इनका विकास विदेशी शासन से मुक्ति के लिए  और स्वतंत्र लोकतंत्रात्मक संस्थाओं की स्थापना के लिए किए गया है।