राष्ट्रपति भी मोदी के एजेंट !

आखिर राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद ने भी चुनाव आयोग के फैसले पर मुहर लगा दी। राष्ट्रपति ने भी ‘लाभ के पद’ के मद्देनजर ‘आप’ के 20 विधायकों को ‘अयोग्य’ माना और इस तरह तुरंत प्रभाव से ‘आप’ के विधायकों की सदस्यता रद्द हो गई। अब दिल्ली विधानसभा में ‘आप’ के 46 विधायक शेष हैं, लेकिन केजरीवाल सरकार स्थिर और एकतरफा बहुमत में अब भी है। राष्ट्रपति के फैसले के बावजूद सुप्रीम कोर्ट जाने का विकल्प खुला है। अकसर राष्ट्रपति के निर्णय पर सुनवाई करने में सुप्रीम कोर्ट परहेज करती है, लेकिन न्याय का एक मौका अब भी ‘आप’ की झोली में है। लेकिन विक्षुब्ध, विक्षिप्त, निराश ‘आप’ के नेताओं ने राष्ट्रपति को भी प्रधानमंत्री मोदी का एजेंट करार दिया है, यह अत्यंत दुर्भाग्यपूर्ण है। ‘आप’ के वरिष्ठ नेता आशुतोष की टिप्पणी है कि राष्ट्रपति का आदेश ‘असंवैधानिक’ और ‘लोकतंत्र के लिए खतरनाक’ है। अकसर राष्ट्रपति के खिलाफ ऐसी टिप्पणियां नहीं की जाती हैं, लेकिन ‘आप’ के लिए अब राष्ट्रपति, चुनाव आयोग, सुप्रीम कोर्ट, सीबीआई आदि संवैधानिक पद और संस्थाएं ‘प्रधानमंत्री की एजेंट’ हो गई हैं। क्या ‘आप’ और केजरीवाल नया संविधान लिखेंगे और अपने लिए नए प्रावधान तय करेंगे? केजरीवाल सरकार के मंत्री और मुंहफट नेता सवाल कर रहे हैं कि चुनाव आयोग की तरह राष्ट्रपति ने भी उनके विधायकों का पक्ष नहीं सुना और एकतरफा फैसला कर दिया। जाहिर है कि राष्ट्रपति भी मोदी सरकार के दबाव में और इशारों पर काम कर रहे हैं। यह केजरीवाल और ‘आप’ की संवैधानिक अतिवादिता है। अब नए-नए खुलासे भी सामने आने लगे हैं। दिल्ली सरकार के मुख्य सचिव ने चुनाव आयोग को जो स्पष्टीकरण भेजे थे, उनमें साफ है कि संसदीय सचिवों के लिए फर्नीचर पर 11.75 लाख रुपए खर्च किए गए। उनके लिए कुछ कैबिन बनाने पर करीब चार लाख रुपए भी खर्च किए गए। पीडब्ल्यूडी के प्रमाण दिए गए। किसी बैठक के लिए सचिवालय से ‘विज्ञान भवन’ तक जाने का किराया 15-20 हजार रुपए वसूला गया। संसदीय सचिवों को बाकायदा कमरे आबंटित किए गए और उनके बाहर नेम प्लेटें लगाई गईं। इनके फोटो प्रमाण सार्वजनिक तौर पर उपलब्ध हैं। संसदीय सचिवों के पानी-बिजली के बिल भी सरकार ने भुगतान किए। ऐसे रिकार्ड साफ करते हैं कि केजरीवाल सरकार और पूरी ‘आप’ सरासर झूठ बोल रहे हैं। यह भी एक किस्म का आपराधिक व्यवहार है। लिहाजा 20 विधायकों की सदस्यता रद्द होने के बावजूद, बेशक, केजरीवाल सरकार स्थिर है, लेकिन उनकी नैतिक हार जरूर है। यदि राजनीति में नैतिकता की कोई गुंजाइश है, तो केजरीवाल को मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा दे देना चाहिए। लेकिन मुख्यमंत्री केजरीवाल खुद और ‘आप’ को ‘पीडि़त’ बयां कर रहे हैं। केजरीवाल का कहना है कि हमें प्रताडि़त किया जा रहा है। भाजपा को सिर्फ केजरीवाल ही भ्रष्ट नजर आता है। हमारी सरकार को काम करने से रोका जा रहा है। पहले विधायकों पर एफआईआर हुई। मुख्यमंत्री के दफ्तर पर ही सीबीआई रेड कराई गई, लेकिन कुछ भी हासिल नहीं हुआ। अब विधायकों की सदस्यता खत्म की गई है। घबराने की बात नहीं है। शायद भगवान ने इसीलिए हमें चुनाव में 67 सीटें दी थीं। ऊपरवाला सब देख रहा है और अंत में जीत सत्य की ही होगी। प्रख्यात संविधान विशेषज्ञ डा. सुभाष कश्यप का भी मानना है कि ‘आप’ के 20 पूर्व विधायकों को अदालत से भी राहत मिलने की उम्मीद नहीं है, क्योंकि ‘लाभ के पद’ वाले कानून ही बेहद स्पष्ट हैं। यदि ऐसा न होता, तो सोनिया गांधी सांसदी से इस्तीफा न देतीं। उनके राष्ट्रीय सलाहकार परिषद के अध्यक्ष पद को ‘लाभ का पद’ माना गया था। सोनिया ने दोबारा चुनाव लड़ा और जीत कर लोकसभा में आईं। यूपीए सरकार ने 2006 में ही संसद (अयोग्यता निवारण) अधिनियम, 1959 में संशोधन किया। इस तरह जितने भी लाभ के पद थे, उनको इसके दायरे से छूट दी गई। हालांकि तत्कालीन राष्ट्रपति एपीजे अब्दुल कलाम ने उस बिल पर नाराजगी जताई थी, लेकिन बिल दोबारा भेजने पर उन्हें हस्ताक्षर करने पड़े। बहरहाल अब ‘आप’ के 20 विधायकों के ‘पूर्व’ होने के कारण दिल्ली में 20 उपचुनाव अनिवार्य हो गए हैं। लिहाजा ‘आप’ की लोकप्रियता दांव पर होगी। घमासान ‘आप’ के भीतर भी है। जनता के कई मोहभंग सामने आए हैं। भ्रष्टाचार को लेकर कथित ‘क्रांति’ नाकाम साबित हुई है। केजरीवाल को समझना होगा कि उन्हें देश के संविधान और कानून के मुताबिक काम करना है। वह अपने लिए नए कानून नहीं तय कर सकते। देखते हैं कि हाई कोर्ट और सुप्रीम कोर्ट का, इस संदर्भ में, क्या फैसला रहता है?