अलविदा ‘चांदनी’

एक पूरे दौर की ‘महिला सुपरस्टार’, ‘महिला अमिताभ’ और महानायिका श्रीदेवी को ‘अलविदा’ कहने या लिखने में घबराहट महसूस होती है। एक जीवंत कलाकार, एक जीवंत किरदार और असंख्य चेहरों को जीने वाले शख्स को ‘अलविदा’ कैसे कहा जा सकता है? बेशक श्रीदेवी के आकस्मिक, असामयिक निधन से पूरा देश स्तब्ध और हैरान है। मौत इसी का नाम है, पदचाप भी सुनाई नहीं देती। अमिताभ बच्चन, रजनीकांत, कमल हासन से लेकर आलिया भट्ट तक सभी की आंखें भीगी हैं। देश के राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री ने भी शोक, सांत्वना प्रकट की है और उनके कलात्मक योगदान को भी याद किया है। फिर भी श्रीदेवी ऐसी शख्सियत थीं कि उन्हें आज या कभी भी ‘अलविदा’ नहीं कहा जा सकता। श्रीदेवी बेहद खूबसूरत, हसीन, चुलबुली, हंसोड़ और भावुक, पेशेवर और एक ईमानदार इनसान थीं। प्रख्यात निर्देशक यश चोपड़ा कहा करते थे-‘इस लड़की के अंदर दर्द का ज्वालामुखी भी कैद है। वह अपने दर्द किसी से नहीं बांटती। बहुत अंतर्मुखी है। खामोश रहती है। नगमा जुबां पर नहीं, उसके दिल में चलता रहता है। जब वह कैमरे के सामने आती है, तो जैसे वह ज्वालामुखी फट जाता है और कयामत आ जाती है।’ कितना खूबसूरत चरित्र-चित्रण है यह! आज न तो यश और न ही उनकी ‘चांदनी’ श्रीदेवी इस जीते-जागते संसार में हैं। श्रीदेवी की आंखें ही अभिव्यक्त करती थीं। उनके नृत्यों की देह भाषा इतनी असरदार और करिश्माई थी कि व्याख्या नहीं की जा सकती। उनके पूरे फिल्मी करियर पर एक भी सवाल नहीं है। श्रीदेवी ने हिंदी के अलावा तमिल, तेलुगू, मलयालम और कन्नड़ सिनेमा में भी 300 फिल्में कीं। ‘मॉम’ उनकी आखिरी प्रदर्शित फिल्म थी। श्रीदेवी ने ‘हिम्मतवाला’, ‘चालबाज’, ‘मिस्टर इंडिया’, ‘खुदागवाह’, ‘नगीना’, ‘मास्टरजी’ से लेकर ‘जुदाई’, ‘लम्हे’, ‘चांदनी’ सरीखी फिल्मों में जो किरदार निभाए थे, वे आज भी हमारी आंखों के सामने साकार हैं, सिनेमा में उनकी विरासत जिंदा है, वे फिल्में कभी न कभी हमारे सामने आती रहेंगी और हम श्रीदेवी को फिर याद करने लगेंगे। तो फिर ऐसे कलाकार को ‘अलविदा’ कैसे कहा जा सकता है? तमिल पिता और तेलुगू मां की बेटी ने चार दशकों से भी अधिक समय तक हिंदी फिल्मों पर राज किया। जब श्रीदेवी 1979 में ‘सोलहवां सावन’ से बालीवुड में आईं, तो हिंदी बोलना बिलकुल भी नहीं जानती थीं, लेकिन ‘चांदनी’ तक आते-आते वह हिंदी में अपने संवाद भी बोलने लगीं और इस तरह उनके किरदारों की अभिव्यक्ति भी जीवंत हो उठी। श्रीदेवी ने सिनेमा में उस दौर का प्रतिनिधित्व किया, जिसमें नृत्य और संगीत की प्रधानता रही। लिहाजा रेखा और माधुरी दीक्षित से उनकी पेशेवर तुलना होती थी। आज श्रीदेवी के अचानक निधन ने एक शून्य तो पैदा कर दिया है, लेकिन फिर भी उन्हें ‘अलविदा’ नहीं कहा जा सकता। कितना क्रूर है ईश्वर! उसने ऐसी ही छोटी उम्र में मधुबाला, मीना कुमारी, नूतन, गीताबाली और स्मिता पाटिल को हमसे छीन लिया और अब श्रीदेवी को सिर्फ 54 साल की उम्र में ही अपने पास बुला लिया-कुछ अधूरे सपनों के साथ। यह भी कोई उम्र होती है! श्रीदेवी अपने भांजे की शादी में दुबई गई थीं। उस मौके पर वह कितनी खुश थीं, झूम-नाच रही थीं, जश्न में सराबोर थीं, लेकिन कुदरत ने अचानक ऐसा हमला बोला कि सब पर विराम लगा दिया। श्रीदेवी ने होटल में ही आखिरी सांस ली। कहा जा रहा है कि उनका ‘कार्डियक अरेस्ट’ हो गया। यानी अचानक दिल ने धड़कना बंद कर दिया। ‘फिटनेस की रानी’ को अचानक यह क्यों हुआ, इस पर भी बहस का एक सिरा छिड़ गया है। हृदय रोग विशेषज्ञ मानते हैं कि उनकी जीवन शैली और जरूरत से ज्यादा शरीर के साथ खिलवाड़ ही इसके कारण हो सकते हैं। फिल्मों में उन्होंने बेहद तनाव, दबाव, चिंता, अनियमित जीवन, अधूरी नींद और खानपान झेला होगा। बहुत ज्यादा फिटनेस की चाहत भी दिल पर असर डालती है। ऐसे ‘कार्डियक अरेस्ट’ खिलाड़ी भी झेलते हैं और उनकी मौतें देखी गई हैं। श्रीदेवी को दिल की बीमारी थी, ऐसा कोई शारीरिक संकेत भी नहीं था। डाक्टर भी मानते हैं कि ऐसे संकेत जरूरी नहीं हैं। जिसे हार्ट अटैक कहा जाता है, उसमें फिर भी मरीज को कुछ समय मिल जाता है, लेकिन ‘कार्डियक अरेस्ट’ में तो दिल तुरंत ही काम करना बंद कर देता है। बहरहाल पति बोनी कपूर, बेटियों-जाह्नवी और खुशी के लिए यह बेहद भारी समय है, खालीपन भी। उन्हें सांत्वना दी जा सकती है। हिम्मत तो उन्हें खुद ही रखनी है। बहरहाल हम उसी जगमगाते चेहरे, छरहरी-लंबी-फिटनेस वाली काया, जुझारू औरत, कमाल की नृत्यांगना और एक संपूर्ण शख्सियत को अपने सामने नहीं देख पाएंगे, अलबत्ता अपनी कला के जरिए वह हमेशा जीवंत रहेंगी, लिहाजा ‘अलविदा’ कहने को मन नहीं करता।