कुंडलिनी साधना में उद्घाटन कवच

चक्र मूलाधार में चक्र नायिका त्रिपुरा हैं, जबकि भय नृजन्म है। चक्र स्वाधिष्ठान में चक्र नायिका त्रिपुरेशिनी हैं, जबकि भय पशुबुद्धि है। मणिपूर चक्र में चक्र नायिका त्रिपुरेशी हैं, जबकि भय स्त्रीजन्म है। स्वस्तिक में चक्र नायिका त्रिपुरसुंदरी हैं, जबकि भय शोक है। अनाहत में त्रिपुरवासिनी चक्र नायिका हैं, जबकि भय अज्ञान है…

इस बार साधना के तहत हम उद्घाटन कवच की चर्चा करेंगे। कुंडलिनी की साधना के समय उद्घाटन कवच का पाठ किया जाता है। इससे कुंडलिनी जागरण में तो सहायता मिलती ही है, इस समय में आने वाली बाधाओं का भी शमन हो जाता है तथा साधक हर प्रकार की दुष्ट आत्माओं से सुरक्षित रहता है। इस कवच को अत्यंत लाभप्रद माना गया है ः

मूलाधारे स्थिता देवि! त्रिपुरा चक्रनायिका।

नृजन्मभीति-नाशार्थं, सावधाना सदाअस्तु मे।।

इस उद्घाटन कवच में भगवती त्रिपुरसुंदरी के श्रीचक्र में स्थित आवरणगत प्रमुख देवियों से प्रार्थना की गई है, जो चक्र की नायिकाएं हैं। यहां नव आवरण रूप नौ शरीरगत चक्र एवं हृदय में विराजमान देवियों से जिन-जिन भयों से रक्षा की प्रार्थना की गई है, उनकी तालिका अग्रलिखित है। चक्र मूलाधार में चक्र नायिका त्रिपुरा हैं, जबकि भय नृजन्म है। चक्र स्वाधिष्ठान में चक्र नायिका त्रिपुरेशिनी हैं, जबकि भय पशुबुद्धि है। मणिपूर चक्र में चक्र नायिका त्रिपुरेशी हैं, जबकि भय स्त्रीजन्म है। स्वस्तिक में चक्र नायिका त्रिपुरसुंदरी हैं, जबकि भय शोक है। अनाहत में त्रिपुरवासिनी चक्र नायिका हैं, जबकि भय अज्ञान है। चक्र विशुद्ध में चक्र नायिका त्रिपुराश्री हैं, जबकि भय जरा है। आज्ञा चक्र में चक्र नायिका त्रिपुरमालिनी हैं, जबकि भय मृत्यु है। चक्र ललाटपद्म में चक्र नायिका त्रिपुरासिद्धा हैं, जबकि भय भीतिसंघ है। सहस्रार चक्र में चक्र नायिका त्रिपुराम्बा हैं, जबकि भय पाप है। बिंदु चक्र में चक्र नायिका सुंदरीयोगेशी हैं, जबकि भय विघ्न है। इन सब भयों से निवृत्ति की याचना करते हुए इसमें पराम्बा के चरणों में शरण-प्राप्ति की कामना की गई है, जो उचित ही है। ऐसे ही अंतर्याग के लिए अन्य उपयोगी विधान रुद्रयामल तंत्र में वर्णित हैं। उक्त चक्रों में ही प्रत्येक आवरण में देवी के मंत्र का जप किया जाता है। जैसे-जैसे साधना-क्रम आगे बढ़ता जाता है, उसमें और भी विशिष्ट प्रक्रियाओं का समावेश करते हुए सायुज्य तथा सारूप्य की प्राप्ति तक पहुंचा जा सकता है। अब हम बाह्यपूजा विधान की चर्चा करेंगे।इसके क्रमशः न्यास, पात्रासादन व अर्चन, ये तीन महत्त्वपूर्ण अंग हैं। न्यासप्रिया तु श्रीविद्या-इस आगमवचन के अनुसार श्रीविद्या के अंगभूत न्यासों की संख्या अति विशाल है। किंतु पूजाधिकार सिद्धि के लिए-ब्रह्म विद्यासंप्रदाय स्तोत्र, यागमंदिर-प्रवेश, तत्त्वाचमन, गुरुपादुका मंत्र का जप, घंटापूजन, संकल्प, आसनपूजा, देहरक्षा, दिग्बंधन, मंदिरपूजा, दीपपूजा, भूतशुद्धि, आत्मप्राण, प्रतिष्ठा के बाद मातृकान्यास (दोनों प्रकार का), करशुद्धिन्यास, आत्मरक्षान्यास, बाला षडंगन्यास, चतुरासनन्यास, वाग्देवतान्यास, बहिश्चक्रन्यास, अंतश्चक्रन्यास, कामेश्वर्यादिन्यास और मूलविद्यान्यास करने चाहिए। यदि महाषोडशी प्राप्त हो तो षोडशाक्षरीन्यास, सम्मोहनन्यास और महाषोडशाक्षरी के संहार, स्थिति एवं सृष्टिन्यास तक के न्यास अवश्य ही करने चाहिए। इनके अलावा लघुषोढादि न्यासों के करने से अभ्युदय होता है, किंतु यदि ये सब न किए जा सकें तो भी कोई दोष नहीं है। कुंडलिनी साधना में उद्घाटन कवच निश्चित ही एक बहुमूल्य उपाय है, लेकिन इसका लाभ तभी मिल पाता है, जब नियमानुसार इसका पाठ किया जाए।