चेतना के जगत में

ओशो

हम वस्तुओं के जगत में रहते हैं। न तो हम पदार्थ के जगत में रहते हैं और न हम स्वर्ग के, चेतना के जगत में रहते हैं। अपने आसपास थोड़ी नजर डाल कर देखेंगे, तो समझ में आ सकेगा।  ऐसा नहीं कि आपके घर में फर्नीचर है, इसलिए आप वस्तुओं में रहते हैं, मकान है, इसलिए वस्तुओं में रहते हैं, धन है, इसलिए आप वस्तुओं में रहते हैं। नहीं, फर्नीचर, मकान, धन और दरवाजे और दीवारें, ये तो वस्तुएं हैं ही, लेकिन इन वस्तुओं के बीच में जो लोग रहते हैं, वे भी करीब-करीब वस्तुएं हो जाते हैं। मैं किसी को प्रेम करता हूं, जो चाहता हूं कि कल भी मेरा प्रेम कायम रहे, तो चाहता हूं कि जिसने मुझे आज प्रेम दिया, वह कल भी मुझे प्रेम दे। अब कल का भरोसा सिर्फ  वस्तु का किया जा सकता है। कुर्सी मैंने जहां रखी थी अपने कमरे में, कल भी वहीं मिल सकती है। प्रेडिक्टेबल है, उसकी भविष्यवाणी हो सकती है और रिलायबल है, उस पर निर्भर रहा जा सकता है। क्योंकि मुर्दा कुर्सी की अपनी कोई चेतना, अपनी कोई स्वतंत्रता नहीं है। अगर व्यक्ति जीवंत है और चेतना है तो पक्का नहीं हुआ जा सकता। हो भी सकता है, न भी हो, लेकिन मैं चाहता हूं कि नहीं, कल भी यही हो जो आज हुआ था। तो फिर मुझे कोशिश करनी पड़ेगी कि यह व्यक्ति को मिटा कर मैं वस्तु बना लूं। तो फिर मैं अपने प्रेमी को पति बना लूं या प्रेयसी को पत्नी बना लूं। कानून का, समाज का सहारा ले लूं और कल सुबह जब मैं प्रेम की मांग करूं, तो वह पत्नी या वह पति इनकार न कर पाएगा। क्योंकि वादे तय हो गए हैं, समझौता हो गया है, सब सुनिश्चित हो गया है। अब मुझे इनकार करना मुझे धोखा देना है, वह कर्त्तव्य से च्युत होना है। तो जिसे मैंने कल से प्रेम में बांधा, उसे मैंने वस्तु बनाया और अगर उसने जरा सी भी चेतना दिखाई और व्यक्तित्व दिखाया, तो अड़चन होगी, तो संघर्ष होगा, तो कलह होगी। इसलिए हमारे सारे संबंध कलह बन जाते हैं। क्योंकि हम व्यक्तियों से वस्तुओं जैसी अपेक्षा करते हैं। बहुत कोशिश करके भी कोई व्यक्ति वस्तु नहीं हो पाता। हां, कोशिश करता है, उससे जड़ होता चला जाता है। फिर भी नहीं हो पाता, थोड़ी चेतना भीतर जगती रहती है, वह उपद्रव करती रहती है। फिर सारा जीवन उस चेतना को दबाने और उस पदार्थ को लादने की चेष्टा बनती है और जिस व्यक्ति को भी मैंने दबाकर वस्तु बना दिया। आनंद तो यही था कि वहां चैतन्य था। यह मनुष्य का द्वंद्व है कि वह चाहता है व्यक्ति से ऐसा प्रेम, जैसा वस्तुओं से ही मिल सकता है और वस्तुओं से प्रेम नहीं चाहता क्योंकि वस्तुओं के प्रेम का क्या मतलब है। एक ऐसी ही असंभव संभावना हमारे मन में दौड़ती रहती है कि व्यक्ति से ऐसा प्रेम मिले, जैसा वस्तु से मिलता है। यह असंभव है। दोनों ही स्थितियों में सिवा फ्रस्ट्रेशन और विषाद के कुछ हाथ न लगेगा और हम सब एक-दूसरे को वस्तु बनाने में लगे रहते हैं। हम जिसको परिवार कहते हैं, समाज कहते हैं, वह व्यक्तियों का समूह कम, वस्तुओं का संग्रह ज्यादा है। यह जो हमारी स्थिति है, इसके पीछे अगर हम खोजने जाएं, तो लाओत्से जो कहता है, वही घटना मिलेगी। असल में जहां है नाम, वहां व्यक्ति विलीन हो जाएगा, चेतना खो जाएगी और वस्तु रह जाएगी। मैंने नाम दे दिया एक जीवंत घटना को, जो अभी बढ़ती और बड़ी होती, फैलती और नई होती और पता नहीं, कैसी होती! कल क्या होता, नहीं कहा जा सकता था।