जिक्र धारा-118 तक

औचित्य और अर्जी तक धारा-118 का जिक्र भी हिमाचली स्वाभिमान की पनाह सरीखा हो चला है, इसलिए ज्यों ही जयराम सरकार ईज ऑफ डूईंग बिजनेस के पेंच से इसे हटाने का इशारा भर करती है, प्रदेश को बचाने की नारेबाजी शुरू हो जाती है। कुछ लोग इसे हिमाचली अस्मिता से उसी तरह जोड़ना चाहते हैं, जिस तरह जम्मू-कश्मीर में धारा-370 के तहत एक समाज राष्ट्र से भिन्न रहने की पहचान में राष्ट्रीय चेहरे के लिए तकलीफदेह है। हिमाचल की अपनी प्रगति के मायने अगर धारा-118 से सुनिश्चित होते, तो हमारा कृषि क्षेत्र समृद्ध होता या बागबानी पर टिकी आर्थिकी से रोजगार बढ़ता। दुर्भाग्यवश हिमाचल में कृषि रोजगार घट रहा है, तो जमीन के इस्तेमाल को समझना होगा। हैरानी यह कि धारा-118 के तहत हिमाचली संरक्षण का आत्मसम्मान यह गौर नहीं करता कि हर दिन दर्जनों ट्रक बाहरी प्रदेशों से जब तूड़ी लाकर ढेर लगाते हैं, तो हमारी हैसियत का अनुपात क्या होता है। हर दिन बाहरी राज्यों से आते दुग्ध उत्पाद और सब्जियों की आमद अगर एक दिन रुक जाए, तो हिमाचल की वही जमीन सरक जाए, जिसकी रक्षा के लिए धारा-118 की दीवार चिनकर हम विभ्रम में जीना चाहते हैं। अस्मिता के संबोधन कानून की पहरेदारी में होंगे या आचरण की मिट्टी को पवित्र बनाने से संभव होंगे। जरा गौर करें आवारा घूम रहे गोवंश की दयनीय स्थिति पर तथा विश्लेषण करें कि यहां हिमाचली गौरव की पनाह किस तरह आवारा हो चुके पशुओं के समान ही है। हिमाचल की जमीन लूटने वाले कितने सुशोभित हुए कि उन्होंने वन भूमि पर सेब उगा दिए या उस अतिक्रमण का क्या मूल्य रहा होगा, जो हर गांव से शहर तक की कहानी में प्रदेश का अति निर्लज्ज कारनामा बन चुका है। जिन भूमिहीनों को कृषि के लिए राज्य ने नौतोड़ भूमि दी, उन्होंने किस दाम से बेच डाली। मुजारा कानून के तहत जो मिलकीयत बंटी, उसमें कितनी खेती हुई या जिनका मालिकाना हक छीना, उन्हें किस हद तक बेरोजगार किया। हिमाचल में जमीन के नाम पर सामाजिक लूट का मुहावरा इतना भी सरल नहीं कि धारा-118 कोई रामबाण उपाय रहा, बल्कि इसके कारण भू-माफिया ही पैदा हुआ। बेनामी सौदों की वजह या विशेषाधिकार की तरह बंटी मंजूरियों की खरीद से अवैध रास्ते ही बने या रिश्तों की डोरियों ने खरीद-फरोख्त संभव कर दी। सामाजिक परिदृश्य में हिमाचली जंवाई होने की मिलकीयत में भू-सौदों की इजाजत संभव है, तो कारोबार की इस डगर पर चलना असंभव नहीं। जाहिर है अगर हिमाचली युवा को रोजगार की रोशनी बाहरी राज्यों में मिलती है, तो एक दिन वह वहां का सम्मानित नागरिक बनकर अपने प्रदेश को संवारने भी पहुंचता है। जोगिंद्रनगर, सुजानपुर व देहरागोपीपुर के तीनों विधायक इस तथ्य के गवाह हैं कि उन्होंने गैर हिमाचली जमीन पर अपना ठौर जमाया, तो एक विशिष्ट पहचान मिली। जरा उस तथ्य पर भी गौर करें, जो देश के विभिन्न हिस्सों पर बसे लघु हिमाचल की पहचान है। दिल्ली, मुंबई, चंडीगढ़, अमृतसर, लुधियाना, पठानकोट, होशियारपुर सहित सैकड़ों ऐसे शहर हैं, जहां किसी हिमाचली को नींव खोदने की मनाही नहीं, बल्कि ऐसे अनेक हिमाचली हैं, जो बाहरी राज्यों को अपनी मेहनत से प्रतिष्ठित कर रहे हैं। वास्तव में जो हिमाचली शिखर छू रहे हैं, या जिन्हें भविष्य की ऊंचाई हासिल करनी है, उनके लिए धारा-118 की शून्यता में बाहरी राज्यों की धरती का चमत्कार अपरिहार्य है। हर साल सैकड़ों हिमाचली अगर बाहर निकल कर बाहरी राज्यों में अपना घर-भविष्य ढूंढ रहे हैं, तो अस्मिता की किस लक्ष्मण रेखा पर धारा-118 खड़ी है। जिस स्वाभिमान से धारा-118 का उल्लेख राजनीतिक गलियारों तक होता, वह जरा यह भी तो बताए कि हिमाचली तरक्की में गैर हिमाचली श्रम कितना महत्त्वपूर्ण हो चुका है। आज हिमाचली जीवन का हर अंग बाहरी श्रम पर निर्भर करता है और अगर प्रवासी मजदूर न आएं, तो विकास कार्यों की आह निकल जाएगी। धारा-118 पर इतराने वाले यह कसम खाएं कि उनके किसी काम या भवन निर्माण में बाहरी मजदूर नहीं होंगे, तो इस ढकोसले का भी फैसला हो जाएगा। हिमाचल में निजी क्षेत्र में जो कार्य या रोजगार पैदा हो रहा है, उसका श्रेय किसी न किसी बाहरी निवेशक को जाता है। हम यह तो चाहते हैं कि हिमाचल की औद्योगिक क्रांति या अधोसंरचना निवेश में सारे देश का धन लगे, लेकिन अपने सच-झूठ के तरीके में किसी बाहरी को बिछौना भी देना नहीं चाहते। धूमल सरकार ने हिमाचली बोनाफाइड देने की घोषणा की, तो तकलीफ हुई, मगर चाहते हम यह हैं कि उद्योगपति यहां आकर निवेश करें और सत्तर फीसदी रोजगार हिमाचलियों को दें। बदले में एक लंबी फाइल, अमैत्रीपूर्ण माहौल, संदेह तथा कभी भी हिमाचली न बनने की शर्त। ऐसे में धारा-118 न तो अस्मिता की लाभकारी दीवार है और न ही प्रगति का चमत्कार, बल्कि हिमाचल को निवेश विरोधी होने का सशक्त बहाना प्रदान करती है। आर्थिक विकास के लिए ऐसी धारा का निरस्त होना राष्ट्र के साथ चलने की इबादत है, अन्यथा बाहरी राज्य भी अगर हिमाचलियों को वापस भेज दें तो फिर देखें कि फैसले का लाभ किस हद तक बर्बादी दे सकता है।