थरूर की दृष्टि में रोजगार का अर्थ

डा. कुलदीप चंद अग्निहोत्री

लेखक, वरिष्ठ स्तंभकार हैं

शशि थरूर के मित्र और कांग्रेस के अर्थशास्त्री पी चिदंबरम तो उनसे भी दो कदम आगे जाते हैं। उनका कहना है कि यदि अपनी रेहड़ी पर पकौड़े तल कर बेचना भी रोजगार की श्रेणी में आता है, तब तो भिक्षा मांगना भी रोजगार ही मानना चाहिए। वैसे तो चिदंबरम कुछ सीमा तक सच ही बोल रहे हैं। चिदंबरम की पार्टी ने पिछले सात दशकों में देश में इसी प्रकार के रोजगार को पैदा किया है। देश के युवा के आत्मविश्वास को खंडित किया है। वह स्वयं अपने बलबूते कुछ कर सकता है, यह भाव उसमें पैदा ही नहीं होने दिया…

रोजगार किसको कहा जाए-इसको लेकर एक नई बहस देश भर में छिड़ गई है। प्रसंग भाजपा के इस वादे का था कि देश भर में रोजगार के नए अवसर सृजित किए जाएंगे। किसी संवाददाता ने इसके बारे में प्रधानमंत्री से पूछा था कि कितने लोगों को रोजगार मिला है? भाव कुछ ऐसा था कि सरकार ने कितने लोगों को नौकरियां दी हैं? प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने रोजगार और उसके अवसर सृजित होने की व्याख्या करते हुए कहा कि टेलीविजन स्टूडियो के सामने जिस व्यक्ति ने अपनी पकौड़े तलने वाली रेहड़ी लगा ली है, उसे भी रोजगार में ही गिना जाएगा। रोजगार की इस व्याख्या को लेकर सोनिया कांग्रेस ने बहुत सख्त एतराज जताया। कांग्रेस के बुद्धिजीवियों के सरगना शशि थरूर इससे बहुत ही व्यथित हुए। उनके दूसरे साथी पी चिदंबरम जो पूर्व में वित्त मंत्री भी रह चुके हैं, का तो कहना है कि यदि रेहड़ी लगा कर पकौड़े तल कर बेचना रोजगार है, तब तो भिक्षा मांगना भी रोजगार ही माना जाना चाहिए। ये दोनों सज्जन सोनिया गांधी कांग्रेस के चिंतन और विचार का प्रतिनिधित्व करते हैं, ऐसा माना जाता है।

शशि थरूर रोजगार की इस अवधारणा का उपहास उड़ाते हैं। पकौड़े तल कर बेचना, उनकी दृष्टि में ऐसी तुच्छ चीज है कि उसे रोजगार तो किसी लिहाज से भी नहीं माना जा सकता। बहुत पहले जब उनसे किसी ने पूछा था कि जो यात्री हवाई जहाज की बिजनेस क्लास में  सफर नहीं करते, बल्कि इकॉनोमी दर्जा में सफर करते हैं, उनको आप क्या कहेंगे। उन्होंने ऐसे यात्रियों को कैटल क्लास कहा था यानी यह दर्जा तो पशुओं के दर्जे के बराबर है। जो लोग इकॉनोमी दर्जा में सफर करते हैं, वे पशु के समान हैं। हवाई जहाज में सफर करने वाला आदमी, यदि वह पहली तीन सीटों पर नहीं बैठा है, शशि थरूर के लिहाज से पशु के समान है, तो अपनी रेहड़ी पर पकौड़े तल कर बेचने वाले आदमी की उनकी दृष्टि में क्या औकात हो सकती है? जब उस आदमी की ही औकात नहीं, तो उस द्वारा किए जाने वाले काम को रोजगार कैसे मान लिया जाए?

अलबत्ता यदि मोदी जी पकौड़े की जगह सनैक्स शब्द का प्रयोग कर लेते, तो मामला बन सकता था। रेहड़ी की जगह भी अंग्रेजी का कोई भारी भरकम शब्द प्रयोग होना ही चाहिए। वाक्य कुछ इस प्रकार का होना चाहिए था-जो फ्रेश सनैक्स तैयार करके सप्लाई करता है, उससे भी रोजगार सृजित हुआ है, ऐसा माना जाना चाहिए। तब शशि थरूर उसे यकीनन रोजगार स्वीकार कर लेते। वह भुनी हुई मक्की बेच रहा है या पोपकॉर्न बेच रहा है, इससे भी जमीन आसमान का फर्क पड़ जाता है। माल दोनों का एक ही होता है, लेकिन बेचने की शैली अलग होती है। शशि थरूर शैली के दीवाने हैं, माल चाहे कितना भी बासी क्यों न हो। लेकिन उधर नरेंद्र मोदी को शैली की चिंता नहीं है, माला ताजा होना चाहिए। इसलिए मोदी के ताजे माल को शशि थरूर रोजगार नहीं मान सकते। उनके लिहाज से सुरक्षा परिषद में सचिव बन जाना ही रोजगार है और न बन पाना बेरोजगारी है। जो लोग अपनी मेहनत से, ईमानदारी से काम करते हैं, उसे थरूर जैसे लोग बेकार और तुच्छ मानते हैं। यह अपनी-अपनी समझ और दृष्टि का मामला है। एक व्यक्ति नौकरी छोड़ कर अपनी छोटी सी दुकान खोल लेता है, तो थरूर जैसे लोगों की दृष्टि में वह बेकार हो गया है। उस पर तरस खाया जा सकता है। यदि वही व्यक्ति कल अपनी दुकान बंद करके किसी बड़े मॉल में मालिक का वही सामना बेचना शुरू कर देता है, तो थरूरों के लिहाज से अब उसको रोजगार मिल गया है। यह दृष्टि आत्मविश्वास की कमी से पैदा हुई है। इस दृष्टि में सड़कों पर खुले ढाबे कैटल क्लास के लिए हैं और इनका रोजगार से क्या लेना-देना? यदि यही ढाबे वाला अपना ढाबा बंद कर बगल में ही और किसी बड़े नाम से चल रहे होटल में पकौड़े तलने का काम शुरू कर देता है, तो वह रोजगार में शामिल हो जाएगा। काम वह एक ही करता था। पहले अपने ढाबे में पकौड़े तल रहा था और अब वह किसी के ढाबे में पकौड़े तल रहा है। थरूर की दृष्टि में पहले वह दया का पात्र था और बेरोजगार था लेकिन दूसरे के होटल में पकौड़े तल कर वह रोजगार पा गया है।

यहां शशि थरूर के मित्र और कांग्रेस के अर्थशास्त्री पी चिदंबरम तो उनसे भी दो कदम आगे जाते हैं। उनका कहना है कि यदि अपनी रेहड़ी पर पकौड़े तल कर बेचना भी रोजगार की श्रेणी में आता है, तब तो भिक्षा मांगना भी रोजगार ही मानना चाहिए। वैसे तो चिदंबरम कुछ सीमा तक सच ही बोल रहे हैं। चिदंबरम की पार्टी ने पिछले सात दशकों में देश में इसी प्रकार के रोजगार को पैदा किया है। देश के युवा के आत्मविश्वास को खंडित किया है। वह स्वयं अपने बलबूते कुछ कर सकता है, यह भाव उसमें पैदा ही नहीं होने दिया। यही कारण है कि वह तमाम योग्यता होते हुए भी सरकारी या अर्द्ध सरकारी नौकरी पाने के लिए किसी न किसी राजनीतिक नेता के पीछे भागा रहता है। राजनेताओं के पीछे पंगु बन कर भागता देश का युवा ही कांग्रेस की असली ताकत रही है। चिदंबरम जानते थे कि यदि युवा ने भागना बंद कर दिया और स्वयं अपने पैरों पर खड़े होने का प्रयास शुरू कर दिया तो उनकी पार्टी की तो ताकत ही खत्म हो जाएगी। सात दशक तक जिस रणनीति को यह पार्टी ढोती रही है, वह उसे आगे बढ़ाने के लिए भी व्याकुल दिखती है।

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने देश का खोया आत्मविश्वास लौटाने का ही प्रयास किया है। रोजगार का मतलब केवल सरकारी नौकरी न होकर अपने पैरों पर खड़े हो पाने की क्षमता विकसित करना है। कौशल प्रशिक्षण इसी का नाम है। ताजा पकौड़े तल कर बेचना भी कोई कम जीवट का काम नहीं है। उसके लिए भी कौशल चाहिए, लेकिन दुर्भाग्य से शशि थरूर और पी चिदंबरम की पार्टी केवल एक ही कौशल जानती है और वह कौशल है कोयले की खदानों के आबंटन की दलाली। उनकी दृष्टि में असली रोजगार तो यही है। अब ऐसे लोग न तो रेहड़ी लगा कर आजीविका कमाने वाले को कैटल क्लास से ज्यादा मानेंगे और न ही उसके इस काम को रोजगार।

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