बुद्धिजीवी समाज के मुखौटे

दुनिया के सामने देवभूमि का अवतार बने हिमाचल की अपनी पहचान जो भी हो, लेकिन क्या हमारी मंदिर संस्कृति, परंपराएं, त्योहार और मेले इस काबिल बने कि राष्ट्र इन्हें पलकों पर बैठाए। मंगलवार के दिन शिवरात्रि का जिक्र सारे देश के ज्योतिर्लिंगों की शक्ति में समाहित हुआ, लेकिन हिमाचल का वर्णन कहीं दिखाई नहीं दिया। मंडी या बैजनाथ के शिवरात्रि महोत्सव से गांव-गांव तक पसरी शैव संस्कृति का उल्लेख अगर राष्ट्रीय परिपाटी में दिखाई नहीं देता, तो हिमाचल का प्रबुद्ध समाज चिंतन करे कि आखिर हम राष्ट्र के किस कोने पर खड़े हैं। हिमाचल का जिक्र अगर बौना है, तो बुद्धिजीवी वर्ग इस दिशा में मौन क्यों। राष्ट्रीय सम्मान के अधिकार की भी सियासत होती है, तो क्या हिमाचली समुदाय अपने नायकों की अवहेलना पर खामोश रहे। जाहिर है हिमाचली राजनीति ने समाज और संस्कृति की आंखें संकीर्णता से भर दीं और इसलिए गैर हिमाचलीवाद शुरू हो गया। यानी प्रशंसा के लफ्ज हिमाचली हुनर को नहीं और न ही अपनी क्षमता पर विश्वास रहा। देश के कई राज्यों विशेषकर प. बंगाल, ओडिशा, महाराष्ट्र, उत्तर प्रदेश, गुजरात, राजस्थान व मध्यप्रदेश में समाज की परंपराएं, अपनी कलाओं-कलाकारों, इतिहास-इतिहासकारों, साहित्य-साहित्यकारों, मीडिया-मीडियाकर्मियों व गीत-संगीत-गायकों से जुड़कर संपन्न होती है तो इसलिए कि समाज स्वार्थ के मुखौटे नहीं पहनता। हमारे प्रदेश के बुद्धिजीवी केवल राजनीतिक कवच में अपना गुणगान ढूंढते हैं। इसलिए हमारे आचार-व्यवहार, संस्कृति व सरोकार का एक तरह से राष्ट्रीकरण हो रहा है। यहां बौद्धिक विचरण भी सियासी आखेट की तरह है, क्योंकि सोच की गलियां केवल हमारे अपने घर को संबोधित करती हैं। आंदोलनों की खिड़कियां हमारे अपने वजूद की शर्त हैं, तो हिमाचली स्वाभिमान की किसे खबर होगी। इसलिए हमारी परिपाटियां एकल और प्राथमिकताएं भी निजी स्वरूप में कैद हैं। प्रदेश के मजमून में खैरात ढूंढते सफर की कहानी में हम पात्र बनकर खुशहाली तो बटोर रहे हैं, लेकिन जरा साहस करके अपने अस्तित्व के पांच हिमाचली तत्त्व या चिन्ह तो ढूंढें। यह भी पता कर लें कि इतिहास में हिमाचल का उल्लेख करते नायकों के प्रति हमारी याददाश्त के पन्ने हैं कहां। विडंबना यह भी कि हिमाचल का बुद्धिजीवी वर्ग अपनी सलामती व तरक्की में अंग्रेजी के हस्ताक्षर सीख गया, लेकिन हिमाचली बोलियों की बोली लगती रही। हमसे बेहतर व सक्षम बुद्धिजीवी वर्ग जम्मू का रहा, जिसने डोगरी को राष्ट्रीय सूची में भाषा का दर्जा देने में कोर कसर न छोड़ी। हमें आपत्ति है कि स्कूल प्रांगण में हिमाचली भाषा निपुण न हो जाए और अंचल में विकसित होता लोक साहित्य संपन्न न हो जाए। इसलिए लेखन का श्रम भी सरकारी मेहनताने पर टिका है और भाषा अकादमी की मेहरबानी का राजनीतिक संयोग बड़ा होता रहा है। ऐसे में गिरिराज की तहजीब में छपते विज्ञापन या बाकी सरकारी प्रकाशनों में मिल बांट कर साहित्य की रसीद पाना ही क्या प्रदेश की हिफाजत है। हिमाचली शहादत, विस्थापन और टूटते पर्यावरण की शाखाओं का वर्णन कब मिलेगा। कौन सा ऐसा बुद्धिजीवी वर्ग खड़ा हुआ, जिसने स्कूल शिक्षा बोर्ड के पाठ्यक्रम में हिमाचली नायक की उपस्थिति के लिए संघर्ष किया। क्यों नहीं हिमाचल के खेल रिकार्डों का प्रकाशन उपलब्ध होता है। प्रदेश के कला, भाषा एवं संस्कृति या सूचना एवं जनसंपर्क विभाग, कहानी-कविताओं से हटकर कब हिमाचली युवाओं के संदर्भ में प्रकाशन करेंगे। इसमें दो राय नहीं कि हिमाचल का बौद्धिक कौशल निरंतर तरक्की कर रहा है, लेकिन इसके दायरे में हिमाचल का कद नहीं बढ़ रहा। जवाबदेह समाज की संस्कृति में प्रदेश को जो उजाला चाहिए, उसकी तलाश में बुद्धिजीवी वर्ग का दायित्व बढ़ जाता है। हिमाचली मंथन में इस वर्ग की भागीदारी अगर निजी स्वार्थ के कवच से बाहर नहीं आएगी, तो कौन हमारे प्रदेश की प्रतिभा, कौशल, रूप, स्वरूप और क्षमता को सही परिप्रेक्ष्य में रखेगा। हमारे ज्ञान की गंगा का वैश्विक होना प्रशंसनीय है, लेकिन माटी का रंग भूलना लानत देता है।