मोक्ष की अनुभूति

बाबा हरदेव

परमात्मा कोई दुखवादी नहीं है, बल्कि जीवन की अनिवार्यता यह है कि विपरीत से गुजरे बिना कोई अनुभव नहीं होता। इसी प्रकार मुक्ति अथवा मोक्ष की अनुभूति संसार से गुजर कर होती है। अगरचे मनुष्य वहां ही पहुंचता है, जहां यह था, लेकिन मनुष्य भिन्न होकर पहुंचता है…

वैज्ञानिक सदा से कहते आए हैं कि जीवन की सारी अनुभूतियां विपरीत पर निर्भर हैं। इस सूत्र के मुताबिक अगर शांति का अनुभव चाहिए, तो अशांति से गुजरना वैज्ञानिक दृष्टिकोण से जरूरी है, नहीं तो शांति की कोई प्रतीति नहीं होगी। बेशक मनुष्य शांत ही क्यों न हो, फिर भी मनुष्य को शांति प्रतीत नहीं होगी, जब तक वह स्वयं अशांति से न गुजरे। अब अगर जीवन का अनुभव लेना है तो मृत्यु अनिवार्य है, क्योंकि जीवन मृत्यु की भूमि के बिना उभर ही नहीं सकता। इस लिहाज से मृत्यु जीवन को नष्ट करने वाली नहीं है, बल्कि यह जीवन को जन्म देने वाली तथा संवारने वाली है। जैसे शब्द न हो तो मौन का कैसे अनुभव होगा। अब यह वैज्ञानिक सूत्र, आध्यात्मिक जगत के साथ भी जुड़ा हुआ है। उदाहरण के तौर पर अगर संसार न हो तो परमात्मा का कोई अनुभव नहीं हो सकता। मानो संसार परमात्मा के अनुभव की प्रक्रिया है और यह एक अनिवार्य प्रक्रिया है। अगरचे यह मनुष्य परमात्मा में भी हो सकता है। मनुष्य था और मनुष्य अभी भी परमात्मा में है। मनुष्य कभी परमात्मा से बाहर नहीं हो सकता, फिर भी मनुष्य का संसार में होना बड़ा जरूरी है, ताकि मनुष्य को यह पता चला सके कि मनुष्य परमात्मा में है। इसे ऐसा समझना चाहिए कि मनुष्य सागर की एक मछली का भांति है। अगरचे मछली सागर में ही है, सागर में ही पैदा होती है और यह सागर से इतना जुड़ी हुई है कि मछली के लिए सागर के बगैर एक श्वास लेना भी मुश्किल है, मगर मछली ने कभी सागर के बाहर झांका नहीं है, यह बाहर कभी गई नहीं है और मजे की बात यह है कि मछली को सागर का कुछ पता भी नहीं है। अब मछली को सागर का पता तभी चलेगा, जब इसे सागर से बाहर निकालकर तट पर रख दिया जाएगा तो जब इसे सागर से निकलकर तड़पन महसूस होगी। मानो यह जो सागर से परे हटने की पीड़ा है, वही फिर सागर में मिलने का रस बनती है। चुनांचे इस बाहर निकाली हुई मछली को अगर फिर दोबारा सागर में डाला जाए, तो यह मछली अब वो मछली नहीं होगी, जो मछली सागर में पहले थी। अब यह एक बदली हुई मछली होगी। अब इस मछली के लिए सागर का दोबारा मिलना एक आनंद की घटना है क्योंकि अब इसे पता चल गया है कि वह सागर इसका असल जीवन है। अब इसे पता चल चुका है कि सागर कैसा रहस्य है। इस बात की सार्थकता, अब इसके अनुभव में है। यह एक वास्तविकता है कि यह संसार परमात्मा ने मनुष्य को किसी प्रकार का दुख देने के लिए नहीं बनाया है। परमात्मा कोई दुखवादी नहीं है, बल्कि जीवन की अनिवार्यता यह है कि विपरीत से गुजरे बिना कोई अनुभव नहीं होता। इसी प्रकार मुक्ति अथवा मोक्ष की अनुभूति संसार से गुजर कर होती है। अगरचे मनुष्य वहां ही पहुंचता है,जहां यह था,लेकिन मनुष्य भिन्न होकर पहुंचता है। यह वही पता है जो इसे मिला ही हुआ है, यह तो प्राप्त की ही प्राप्ति है, मगर यह खोकर पाता है और वह जो खोना है, बीच में वह बहुत महत्त्वपूर्ण है। इसके बिना कोई अनुभूति नहीं होती। मानो परमात्मा को पाने के लिए संसार प्रशिक्षण है और यह अनिवार्य प्रशिक्षण है। यह वैसे ही है जैसे एक वैज्ञानिक कहता है हाइड्रोजन और ऑक्सीजन के मिलने से पानी बनता है और अगर कोई पूछे कि ऐसा क्यों होता है। तो विज्ञान में कोई उत्तर नहीं है क्योंकि विज्ञान केवल क्या का जवाब देता है कि बस  ऐसा है।