अरुण तिवारी (ई-मेल के मार्फत)
बूंदा है, बरखा है, पर तालाब रीते हैं।
माटी के होंठ तक, कई जगह सूखे हैं।
भू-जल की सीढ़ी के, नित नए डंडे टूटे हैं।
गहरे-गहरे बोर ने, कई कोष लूटे हैं।
शौचालय का शोर भी,
कई स्वच्छ जल कोष लूटेगा।
स्वच्छ नदियों का गौरव
बचा नहीं शेष अब, हिमनद के आब तक,
पहुंच गई आग आज।
मौसम की चुनौती, घर खेत खा रही,
स्वस्थ भारत का सपना, शीघ्र टूटेगा।
यह न्यू इंडिया है।