रंग और राग का संगम

होली पर्व हिंदू पंचांग के अनुसार फाल्गुन मास की पूर्णिमा को (अंग्रेजी कैलेंडर के अनुसार मार्च के महीने में) मनाया जाता है। इस त्योहार में पहले दिन होली जलाई जाती है, जिसे होलिका दहन कहते हैं और दूसरे दिन होली खेली जाती है…

पारंपरिक रूप से दो दिनों तक मनाए जाने वाले रंगों के त्योहार होली को बुराई पर अच्छाई की जीत के साथ, बसंत ऋतु के आगमन के तौर पर मनाया जाता है। होली पर्व हिंदू पंचांग के अनुसार फाल्गुन मास की पूर्णिमा को (अंग्रेजी कैलेंडर के अनुसार मार्च के महीने में) मनाया जाता है। इस त्योहार में पहले दिन होली जलाई जाती है, जिसे होलिका दहन कहते हैं और दूसरे दिन होली खेली जाती है। इस दिन सभी लोग बैर भाव को भुला कर एक-दूसरे के गले मिल कर गुलाल और अबीर आदि रंग लगाते हैं, इसलिए इसे भाईचारे का त्योहार भी माना जाता है। होली के दिन राग और रंग का संगम होता है, इसलिए लोग रंग खेलते समय जमकर नाचते-गाते हैं। फाल्गुनी होली को फाल्गुन माह में मनाए जाने के कारण इसे फाल्गुनी भी कहते हैं। होली के समय किसान काफी खुश होता है, क्योंकि इस समय फसल पकने को तैयार होती है, सर्दी जा चुकी होती है और मौसम सुहावना होता है। यह त्योहार विशेष रूप से भारत और नेपाल में मनाया जाता है और इसके साथ ही ऐसे देशों में, जहां पर अल्पसंख्यक हिंदू लोग रहते हैं, वहां भी धूमधाम के साथ इसे मनाया जाता है ः

ऐसी होली जले ज्ञान की, ज्योति जगत में भर दे।

कलुषित कल्मष जलें, नाश पापों-तापों का कर दे।।

पकवान और पेय

होली में बनाए जाने वाले पारंपरिक पकवानों और पेय पदार्थों का सेवन कर इस उत्सव की रौनक को और बढ़ाया जाता है। अलग-अलग प्रांतों के अनुसार ऐसे बहुत सारे व्यंजन मौजूद हैं, जिनका सेवन करते हुए आप होली के इस त्योहार का लुत्फ और भी ज्यादा अच्छे से ले सकते हैं। ठंडाई (भांग) होली में पीया जाने वाला एक मुख्य पेय है, जिसे गाढे़ दूध में नट्स (बादाम, काजू अदि) और मसाले डाल कर तैयार किया जाता है। इसी तरह पूरन पोली होली में बनाया जाने वाला महाराष्ट्र प्रांत का बहुत ही चर्चित मीठा व्यंजन है। इसे मैदे की रोटी के अंदर मसूर की दाल और काजू, किशमिश व बादाम भरकर बनाया जाता है। यह एक बेहद स्वादिष्ट मीठा व्यंजन है। उधर गुझिया होली के त्योहार में उत्तर भारतीय लोगों द्वारा बनाया जाने वाला एक बेहद स्वादिष्ट व्यंजन है, जिसे मैदे की रोटी के अंदर कसार भर कर बनाया जाता है। कसार बनाने के लिए आप रवा, मावा, बेसन, काजू, किशमिश, बादाम, नारियल आदि का इस्तेमाल कर सकते हैं। दही-बड़ा, बहुत स्वादिष्ट नाश्ता है, जिसे उड़द की दाल से बने हुए बड़ों को दही में भिगो कर बनाया जाता है।

होलिका दहन कथा

होली मनाने के पीछे एक कहानी है। प्रह्लाद भगवान विष्णु के परम भक्त थे और उनके पिता हिरण्यकश्यप को उसका भगवान विष्णु की भक्ति करना पसंद नहीं था। उसकी इस भक्ति से क्रुद्ध होकर उसने प्रह्लाद को न जाने कितने ही कठोर दंड दिए, हजारों हमले करवाए, लेकिन उनसे उसका बाल भी बांका न हो सका और उसने अपनी भक्ति के मार्ग को नहीं छोड़ा। भक्त प्रह्लाद का पिता हिरण्यकश्यप अपने बेटे से बहुत नफरत करता था। हिरण्यकश्यप की बहन होलिका को वरदान प्राप्त था कि आग भी उसके शरीर को भस्म नहीं कर सकती। हिरण्यकश्यप ने अपनी बहन को आदेश दिया कि वह प्रह्लाद को गोद में लेकर आग में बैठ जाए, ताकि भक्त प्रह्लाद आग में जल कर मर जाए। लेकिन आग में बैठते ही होलिका के बालों ने आग को पकड़ लिया और वह तो जल गई, पर प्रह्लाद अपने आराध्य विष्णु का नाम जपते हुए आग से बाहर आ गए। तब से होलिका दहन की रीत शुरू हो गई। इसके अगले दिन रंगों का त्योहार मनाया जाता है। बस इसी की याद में होली का त्योहार, होलिका दहन करके मनाया जाता है। होलिका से जुड़ी अलग-अलग परंपराएं हैं। कहीं-कहीं होलिका की आग घर ले जाई जाती है। उस आग से घर में रोटी बनाने को शुभ माना जाता है।

बरसाने की होली

वैसे तो होली पूरे भारत में मनाई जाती है, लेकिन ब्रज की होली खास मस्ती भरी होती है। वजह यह कि इसे भगवान श्रीकृष्ण और राधा के प्रेम से जोड़ कर देखा जाता है। होता यह है कि होली की टोलियों में नंदगांव के पुरुष होते हैं, क्योंकि कृष्ण यहीं के थे और बरसाने की महिलाएं क्योंकि राधा बरसाने की थीं। दिलचस्प बात यह होती है कि यह होली बाकी भारत में खेली जाने वाली होली से पहले खेली जाती है। दिन शुरू होते ही नंदगांव के हुरियारों की टोलियां बरसाने पहुंचने लगती हैं। साथ ही पहुंचने लगती हैं कीर्तन मंडलियां। इस दौरान भांग (ठंडई) का खूब इंतजाम होता है। ब्रजवासी लोगों की चिरौंटा जैसी आंखों को देखकर ठंडई की व्यवस्था का अंदाज लगा लेते हैं। बरसाने में टेसू के फूलों के भगोने तैयार रहते हैं। दोपहर तक घमासान लट्ठमार होली का समां बंध चुका होता है। नंदगांव के लोगों के हाथ में पिचकारियां होती हैं और बरसाने की महिलाओं के हाथ में लाठियां। बस यहीं से शुरू हो जाती है होली। पुरुषों को बरसाने वालियों की टोली की लाठियों से बचना होता है और नंदगांव के हुरियारे लाठियों की मार से बचने के साथ-साथ उन्हें रंगों से भिगोने का पूरा प्रयास करते हैं। इस दौरान होरियों का गायन भी साथ-साथ चलता रहता है। आसपास की कीर्तन मंडलियां वहां जमा हो जाती हैं। ‘कान्हा बरसाने में आई जइयो बुलाए गई राधा प्यारी’, ‘फाग खेलन आए हैं नटवर नंद किशोर’ और ‘उड़त गुलाल लाल भए बदरा’ जैसे गीतों की मस्ती से पूरा माहौल झूम उठता है।

कुमाऊंनी की बैठकी होली और खड़ी होली

आधुनिक दौर में जब परंपरागत संस्कृति का क्षय हो रहा है तो वहीं कुमाऊं अंचल की होली में मौजूद परंपरा और शास्त्रीय राग-रागनियों में डूबी होली को आमजन की होली बनता देख सुकून मिलता है। बैठकी होली यहां पौष माह से शुरू होकर फाल्गुन तक गाई जाती है। दूसरी ओर खड़ी होली दिन में ढोल-मंजीरों के साथ गोल घेरे में पग संचालन और भाव प्रदर्शन के साथ गाई जाती है। रात में यही होली बैठकर गाई जाती है।