हस्ते तू दक्षिणे चक्रं दृष्टवा तस्य पितामहः।
विष्णोरं शपृथुं मन्वा परितोषं पर ययौ।।
विष्णु चक्रं करेचिन्ह सर्वेषा चक्रवर्तिनाम्।
भवत्यव्याहतो यस्य प्रभाववस्त्रिदशैरपि।।
महता राजराज्येन पृथुवेन्यः प्रतापवान।
सोऽभिषिक्तौ महातेजा विधिवद्धर्मकोविदैः।।
पित्रापरञ्जितास्तस्य प्रजास्तेनानुरञ्जिताः।
अनुरागात्तास्तस्य नाम राजेत्यजायत।।
आपस्तम्भिरे चाच्य समुद्रभभियास्च्तः।
पर्वताश्च ददुर्माग ध्वजभगश्च नाभवत्।।
अकृष्टपच्या पृथिवी सिद्ध यन्त्यन्नानि चिन्तया।
सर्वकामधा गावः पुटके पुटके मधु।।
उनके दाएं हाथ को चक्रांति देखकर उन्हें भगवान विष्णु अंश समझते हुए ब्रह्माजी अत्यंत प्रसन्नता को प्राप्त हुए। भगवान के चक्र का वह चिन्ह सभी चक्रवर्ती राजाआें के हाथ में पड़ा होता है, जिसके प्रभाव को कुंठित करना देवताओं के भी वश का नहीं है। इस प्रकार अत्यंत तेजस्वी एवं प्रतावी वेन पुत्र धर्मवान व्यक्तियों द्वारा विधिपूर्वक राजाधिराजपद अभिषक्त हुए। उनके पिता ने जिस प्रजा को अप्रसन्न किया था, उसी प्रजा को उन्होंने प्रसन्न किया, इस प्रकार प्रजा को प्रसन्न करने के कारण ही वह वास्तविक रूप में राजा हुए। उनके समुद्र में चलने पर जलस्थिर हो जाता और रर्भत भी उन्हें मार्ग देने थे, इससे उसकी ध्वजा का कभी पतन नहीं हुआ। पृथ्वी जोते, बोए विना ही धान्य उत्पन्न करती और पकाती थी, चिंतन मात्र से ही अन्न पक जाता था, गौए कामधेनु के समान सर्व कामपद थी तथा पुटके-पुटके में मधु भरा रहता था।
तस्य वैजातमात्रस्य यज्ञै पितामहे शुभे।
सुत सूत्यां समुत्पन्नः सौप्येऽहनि महामतिः।।
तस्मिन्नेध महायज्ञ जज्ञे प्राज्ञोऽय मागधः।
प्रोत्तो तदा मुनिवरैस्ताबुभौ सूर्यमागधौ।।
स्तूयतामेष नृपतिः पृथवेन्यः प्रतापवान।
कर्मेतदनुरूपं वां पात्र स्तोत्रस्य चापरम्।।
ततस्तावुचतुविप्रान्सर्वानेव कृताञ्जली।
अद्य जातस्य नो कर्म ज्ञायतेऽस्य महीपतेः।।
गुणा न चास्य ज्ञाथन्ते न चास्य प्रथित यशः।
स्त्रोत्रं किमाश्रय त्वस्य कार्य मस्माभिरुच्यताम्।।
करिप्येय यत्कर्म चक्रवर्ती महाबलः।
गुणा भविष्या ये चास्य तैरय स्तूयतां नृपः।।
उन राजा ने उत्पन्न होते ही जो पिता महायज्ञ किया उससे सीमा भिषव के दिन ही अभिषव वाली भूमि से सूतजी उत्पन्न हुए। उसी यज्ञ से मागध भी प्रकट हुए। उन सूत और गागध से ऋषियों ने कहा इन अत्यंत प्रतापी वेन पुत्र पृथु की तुम स्तुति करो। राजा स्तुति के योग्य हैं और तुम भी स्तुति करने में योग्य ही हो। तब उन सूतनागथ ने उन ऋषियों से करबद्ध निवेदन किया कि उनके कर्मों को नहीं जानते, क्योंकि यह आज ही उत्पन्न हुए हैं। अभी न तो इनके गुण ही कोई जानता और न इनके यश का ही कुछ ज्ञान है तो किस प्रकार इनकी स्तुति की जाए। इस पर ऋषियों ने उनसे कहा कि इनके भावी कर्म और गुण का विचार करके ही इनकी स्तुति करो।
ततः स नृपतिस्त तच्छु त्वा परमं ययौ।
सद्गुणैः श्लाझ्यतामेति तस्माल्लाभ्यां गुणा मम।।
तस्माद्यदद्य स्तात्रैण गुणनिर्वर्ण न त्विमौ।
करिष्येते करिष्यामि तदेवाह समाहितः।।
यदिमौ वर्जनीय च किञ्चिदत्र भविष्यतिः।
तदहं वर्जयिष्यामीत्येव चर्क्र मति नृपः।।
अथ तो चक्रतुः स्त्रोत्रं पृथोवैन्यस्य धीमया। भविष्यै कर्मभिः सम्यक्सुस्वरौ सूतमागमो।।
सत्यवाग्दानशीलऽय सत्यसन्धो नरेश्वरः।
ह्नमान्मेंत्रः क्षमाशीलो विक्रनतौ दुष्टशासनः।।