विष्णु पुराण

एकस्मिन यश निधनं प्रापिते दृष्टकारिणी।

बहूनां भवति क्षेम तप्य पुण्यप्रदो बधः।

प्रजानानुषकारराय यवि मां त्व हानिष्यसि।

आधार कः प्रजानां ते नृपश्रेष्ठ भविष्यति।

त्वाहत्वाः वसुधे बाणमंच्छासनपराङ मुखीम।

आत्मयोबवेनेमाम धारयिष्याम्यहं प्रजाः।

ततः प्रणम्य वसुधा तं भूयः प्राह पार्थिवम।

प्रवेपिताङ्गपरमं साध्वस समुपागता।

उषायतः सुमारवधाः सर्वकिद्ध यंत्युपकमाः।

तस्माद्वदाम्पपायं ते त कुरुध्व यदीच्छसि।

शमस्ता या मया जीर्णाः नरनाथ महौषधीः

यदीच्छसि प्रदास्यामि ताः क्षीरपरिणामिनीः

त मास्प्रजाहितार्थाय मम धर्मभूतां वर

त तु वत्यं कुरुष्व त्व क्षरेयं येन वत्सला

समां च कुरु सर्वत्र येन क्षीर समन्ततः

वषोषधी बीजभूत बीज सर्वत्र भवाये।

राजा पृथु ने कहा, जहां एक अनर्थ करने वाले के वध से अनेक व्यक्तियों को सुख प्राप्त होता है। वहां उसका वध ही श्रेयस्कर है। पृथ्वी ने कहा, हे राजन यदि आप मुझे प्रजा के हितार्थ ही मारने की इच्छा करते हैं। मेरे मारने पर आपकी सह प्रजा का आधार क्या होगा। पृथु बोले, मैं आपकी आज्ञा को न मानने वाली मुझे मार कर अपने योग्य बल से स्वयं का आधार बनकर प्रजा को धारण करूंगा। श्री पराशरजी ने कहा, यह सुनकर भय से अत्यंत कांपती हुई उस पृथ्वी ने राजा को प्रमाण करके कहा। पृथ्वी बोली, हे राजन ऐसे कार्य योजनाबद्ध होते हैं, वे सफल होते हैं। इसलिए मैं आपको एक उपाय बताना चाहती हूं। आप चाहें तो उसके अनुसार करे। हे नरेंद्र! मैंने जिन औषधियों को अपने में लीन कर लिया है, यदि आप चाहे तो मैं उन्हें दूध के रूप में पुनः दे सकती हूं। इसलिए हे धर्मात्माओं में श्रेष्ठ! आप अपनी प्रजा का हित करने के लिए कोई ऐसा बछड़ा कल्पित कीजिए, जिसके स्नेह वश में उन औषधियों को दूध रूप में निकाल दूं। आप मुझे सब ओर समतल कर दीजिए, जिससे श्रेष्ठ औषधियों के बीज रूप दूध का उत्पादन सर्वत्र हो सके।

तत इत्यारमामास शैलान शतसहस्रशः।

धनुत्कोट्या तवा वैनस्तेन शैला विवर्द्धिताः।

न हि पर्वसर्गे वै विषमे पृथिवीतले।

प्रतिभागः पुराणां वा पुराभवत।

न सस्यानि न गोरक्ष्य न कृषिन वाणिकपथः।

वैंत्याप्रभूति मैत्रेय सर्वस्यैनस्य संभवः।

यत्रमत्र समं त्वस्या भूमेरासीदूद्विजोतमः।

तत्र तत्र प्रजाः सर्वा निवास समरोचयन।

आहार फलमूलानि प्रजानामभवत्तदा।

कृच्छेण महता सोऽपि प्रणष्टास्वीशधीषु वैः

स कल्पयित्वा वत्स तु मनुं स्वायम्भुब प्रभुम।

स्वपाणो पृथिवीनाथो दुदोह पृथिवी पृथुः।

तेनाने प्रजास्तौतत वतंतेऽद्यापि नित्यशः

सस्यजातानि सार्वणि प्रजानां हित काम्याया।

श्री पराशरजी ने कहा, यह सुनकर राजा पृथु ने अपने धनुष की कोटि से हजारों पर्वतों को उखाड़-उखाड़ कर एक ही स्थान पर एकत्र कर दिया। इससे पहले पृथ्वी समतल नहीं थी। तथा पुर, ग्राम आदि का विभाग भी नहीं था। हे मैत्रेयजी! उस समय, कृषि व्यापार आदि नियमित क्रम नहीं था। उसका आरंभ वेन पुत्र पृथु के शासनकाल में ही हुआ। हे द्विजश्रेष्ठ! जहां-जहां पृथ्वी समतल हुई, वहीं-वहीं प्रजा जा बसी, उस समय तो केवल फल-मूलादि का आहार किया जाता था, परंतु औषधियों के नष्ट होने पर वह भी अत्यंत दुर्लभ हो गया। उस समय राजा पृथु ने स्वयं भू मनु को बछड़ा बनाया और हाथ से पृथ्वी रूपी गौ से धान्यों का दोहना किया, उसी अन्न के आधार पर अब प्रजा जीवनयापन करती है।