श्रीविश्वकर्मा पुराण

इस प्रकार प्रभु की आराधना करने से मनुष्य सब दुखों से मुक्त होता है तथा उसके सिर पर चाहे कैसी भी मुसीबत हो, वह सब दूर होती है  तथा मनुष्य अनेक तरह के उत्तम सुख भोगकर भगवान की अनन्य कृपा को पाते हुए आखिरी में प्रभु के परमपद को पाता है…

देवादिदेव ऐसे प्रभु का पूजन कब करना तथा उसकी क्या विधि रहनी चाहिए? सभी बात मुझे विस्तारपूर्वक बताओ जिससे मेरे मन के सभी संकल्प सफल हों तथा आपके श्री मुख्य की ये अमोघवाणी से मेरी श्रवणेेंद्रिय पवित्र बनें तथा अंतर प्रफुल्लित हो आदि शेष प्रभु का अगाध महात्म्य समझाने को कोई भी शक्तिमान नहीं है, फिर भी मैंने जो थोड़ा भी महात्म्य सुना है, उससे मुझे प्रभु के प्रति अत्यंत भक्ति उत्पन्न हुई है, इसलिए मेरे ऊपर कृपा करके आप मुझे प्रभु के पुजन की विधि बताओ। वात्सायन के इस प्रकार के वचन सुनकर शेषनारायण बोले, हे वात्सायन! इला के ऊपर जब राक्षसों से भय उत्पन्न हुआ नारदजी ने इला को इस प्रकार से भगवान के उत्तम प्रकार के पूजन की विधि बताई है वह मैं तुमसे कहता हूं। इस प्रकार प्रभु की आराधना करने से मनुष्य सब दुखों से मुक्त होता है तथा उसके सिर पर चाहे कैसी भी मुसीबत हो, वह सब दूर होती हैं तथा मनुष्य अनेक तरह के उत्तम सुख भोगकर भगवान की अनन्य कृपा को पाते हुए आखिरी में प्रभु के परमपद को पाता है। मनुष्य भगवान विश्वकर्मा की अवगणना करता है तथा भगवान की संतानों को सताता है, उन मनुष्यों की अधोगति होती है तथा नरक में उनको ऐसी भयंकर यातनाएं सहन करनी पड़ती हैं, जिनकी वर्णन मात्र भी मनुष्य को बेचैन कर देता है। चार युगों में भी कलियुग में अनेक तरह के उत्पात और भयंकर विपत्तियों के समय में जो कोई मनुष्य प्रभु विश्वकर्मा की क्षण भर भी सच्चे हृदय से भक्ति करेगा, उस अनेक तरह के सुख संपत्ति प्राप्त होंगे तथा आने वाली किसी भी आपत्ति से उबर जाएगा, अटूट दया के भंडार ऐसे प्रभु उस मनुष्य का हर पल रक्षण करते हैं। हे वात्सायन! इला को जब बारंबार राक्षसों की तरफ से कष्ट होने लगा, तब वह अत्यंत परेशानी का अनुभव करने लगी थी तथा अपने पति की सेवा के कारण इला को बार-बार अपने निवास स्थान रूपी गुफा के बाहर आना ही पड़ता था और जब-जब वह बाहर आती तब दुष्ट बुद्धि वाले दैत्य उसे अकेली जानकर अनेक तरह से उसे सताते थे। फिर भी पति परायण इला यह सब सहन करके अपने पति की सेवा में तत्पर रहती थी। बाग में फूल लेने गई हुई इला को एक वक्त दैवयोग से बाग में नारदजी का मिलाप हुआ, उन्होंने इला से कुशल समाचार पूछे, उस समय आंसुओं से भीगे हुए नयन से इला ने अपनी विपत्ति कह सुनाई तथा इस विपत्ति में से छूटने का उपाय पूछा, इला का इस प्रकार का प्रश्न सुनकर नारद मुनि बोले, हे सती! तू भगवान विश्वकर्मा का पूजन कर, इस प्रकार कहकर नारद मुनि इला से बोले, तुझे प्रभु के पूजन की विधि बताता हूं वह तू ध्यानपूर्वक सुन।