संसदीय प्रणाली : इंडियन कौंसिल्ज अधिनियम-1892 मंजूर

गतांक से आगे…

इंडियन नेशनल कांग्रेस का गठन :

इंडियन  नेशनल कांग्रेस की स्थापना  1885 में हुई। इससे भारत में साम्राज्यवादी नियंत्रण धीरे-धीरे कम होने की और उत्तरदायी सरकार के विकास की प्रक्रिया की शुरुआत हुई। कांग्रेस ने प्रारंभ से ही अपने सार्वजनिक जीवन का मुख्य आधार यह बनाया कि देश में धीरे- धीरे प्रतिनिधि संस्थाएं बनें। कांग्रेस का विचार था कि कौंसिल में सुधार से ही अन्य सब व्यवस्थाओं में सुधार हो सकता है। कांग्रेस के पांचवें अधिवेशन (मुंबई, 1889) में इस विषय पर बोलते हुए सुरेंद्रनाथ बनर्जी ने कहा : ‘‘यदि कौंसिल में सुधार हो जाता है तो आपको और सभी कुछ मिल जाएगा। हमारे देश का भविष्य और हमारी प्रशासनिक व्यवस्था का भविष्य इसी पर निर्भर करता है।’’

1892 का इंडियन कौंसिल्ज अधिनियम :

यह अधिनियम, कम से कम अंशतः प्रतिनिधि संस्थाओं के लिए बढ़ती हुई भारतीय मांग को स्वीकारने की दिशा में एक कदम था। ब्रिटिश संसद द्वारा विधान परिषदों में भारत की जनता को वास्तव में प्रतिनिधित्व देने की दृष्टि से इंडियन कौंसिल्ज अधिनियम , 1892 को स्वीकृति प्रदान करना इन अर्थों में कांग्रेस की विजय माना गया कि ब्रिटिश सरकार ने पहली बार  परिवर्द्धित परिषदों में प्रतिनिधित्व की बात को मान्यता दी। कांग्रेस को इस बात से संतुष्टि हुई कि भारतीयों के राजनीतिक मताधिकार के साझे प्रयोजनार्थ उनमें एकता उसी ने कायम की। भारतीय परिषदों के पुनर्गठन के लिए इंडियन कौंसिल्ज अधिनियम, 1861 में संशोधन किया गया। गवर्नर-जनरल की विधान परिषद का अग्रेतर विस्तार करने के लिए यह व्यवस्था की गई कि उसमें कम से कम दस और अधिक से अधिक  सोलह अतिरिक्त सदस्य होंगे। पहले यह व्यवस्था थी कि उसमें कम से कम और अधिक से अधिक बारह सदस्य होंगे। इसी प्रकार प्रांतीय विधान परिषदों के अतिरिक्त सदस्यों की संख्या में भी वृद्धि की गई। जिन विनियमों के अधीन परिषदों के अतिरिक्त सदस्य मनोनीत किए जाते थे उनमें निर्धारित था कि कुछ गैर-सरकारी व्यक्ति, विशेष हितों का प्रतिनिधित्व करने वाले कुछ मान्यता प्राप्त निकायों अथवा एसोसिएशन की सिफारिश पर मनोनीत किए जाने चाहिए।