संसदीय प्रणाली

विधान बनाना कार्यपालिका का काम नहीं

गतांक से आगे…

1861 का इंडियन कौंसिल्ज अधिनियम :

इस  अधिनियम का उद्देश्य ‘गवर्नर-जनरल ’ की कौंसिल के गठन के लिए बेहतर व्यवस्था करना तथा  अनेक प्रेजिडेंसियों तथा प्रांतों की स्थानीय सरकार के लिए व्यवस्था करना था। इस अधिनियम को भारतीय  विधानमंडल का प्रमुख घोषणापत्र कहा गया,  जिसके द्वारा भारत में विधायी अधिकारी के अंतरण की प्रणाली का उद्घाटन हुआ। इस अधिनियम द्वारा केंद्रीय एवं प्रांतीय  स्तरों पर विधान बनाने की व्यवस्था में महत्त्वपूर्ण परिर्वतन किए गए। इसके अधीन गवर्नर-जनरल की कौंसिल पुनर्गठित की गई और तत्पश्चात उसके लिए अब तक के चार के स्थान पर पांच साधारण सदस्यों की व्यवस्था की गई। विधान बनाने के प्रयोजनार्थ, गवर्नर-जनरल को अधिकार दिया गया कि वह अपनी कौंसिल के लिए कम से कम छह और अधिक से अधिक बारह अतिरिक्त सदस्य मनोनीत करे, जिनमें से कम से कम आधे  गैर सरकारी सदस्यों में भारतीयों को नियुक्त किया जाना जरूरी नहीं था।  तथापि हाउस ऑफ कॉमन्स में यह आश्वासन दिया गया कि भारतीयों को इन पदों पर नियुक्त किया जाएगा। इस आश्वासन और इस तथ्य के बावजूद कि कौंसिल के लिए स्पष्ट व्यवस्था थी कि वह  केवल विधायी कार्य करे, इसे उत्तरदायी या प्रतिनिधि विधायी निकाय नहीं माना जा सकता । वह सरकार की विधायी समिति मात्र थी, जिसके द्वारा कार्यपालिका विधान के बारे में मंत्रणा एवं सहायता प्राप्त करती थी। विचाराधीन विधान के अलावा किसी अन्य विषय पर चूंकि उसमें विचार नहीं किया जाता था और उसे शिकायतों की जांच करने,  जानकारी प्राप्त करने या कार्यपालिका के आचार की जांच करने का अधिकार नहीं था।  अतः उस कौंसिल में उत्तरादायी संस्थाओं का कोई अंश नहीं था।

फिर भी संवैधानिक विकास की दृष्टि से 1861 के अधिनियम के परिणामस्वरूप पहले की स्थिति में सुधार हुआ क्योंकि अंग्रेजी राज के भारत में जमने के पश्चात इसमें पहली बार विधायी निकायों में गैर-सरकारी व्यक्तियों के प्रतिनिधित्व के महत्त्वपूर्ण सिद्धांत को स्वीकार किया गया। इसके अतिरिक्त तत्पश्चात विधान उचित विचार – विमर्श के बाद बनाए गए और वे नियमित विधान थे, जिन्हें केवल उसी प्रक्रिया द्वारा बदला जा सकता था, जिस प्रक्रिया से वे बने थे। इस प्रकार कार्यपालिका द्वारा विधान बनाए जाने के दिन व्यावहारिक रूप से बीत गए और यह समझा जाने लगा कि विधान बनाना केवल कार्यपालिका का ही कार्य नहीं है।

  -क्रमशः