साम्यवादी खेमे में बढ़ते मतभेद

डा. कुलदीप चंद अग्निहोत्री

लेखक, वरिष्ठ स्तंभकार हैं

यदि सीताराम की सलाह मान कर त्रिपुरा में कांग्रेस से गलबाहीं की गई, तो केरल में सामान्य जन की बात तो दूर अपने लोगों से आंख मिलाना मुश्किल हो जाएगा। इसलिए त्रिपुरा की लड़ाई अपने बलबूते ही लड़नी चाहिए, लेकिन सीताराम येचुरी जानते हैं कि सीपीएम के लिए अपने बलबूते लड़ाई लड़ने के दिन जा चुके हैं। वे दिन हवा हुए जब खलील खां फाख्ता उड़ाया करते  थे। किस्सा कोताह यह कि सीपीएम को यह एहसास हो गया लगता है कि उसके अपने गढ़ केरल और त्रिपुरा में राष्ट्रवादी ताकतों ने जोर से दस्तक दे दी है…

भारत में साम्यवादी आंदोलन लगभग एक शताब्दी पुराना है। रूस में साम्यवादी क्रांति 1917 में हुई थी और उसके आठ साल बाद ही 1925 को हिंदोस्तान में कम्युनिस्ट पार्टी की स्थापना हो गई थी। साम्यवाद को लेकर एक मुहावरा पूरी दुनिया में प्रचलित हुआ था, जो जवानी में कम्युनिस्ट नहीं बना वह हृदयहीन है और जो अधेड़ उम्र में भी कम्युनिस्ट बना रहा, वह बुद्धिमान है। शायद यही कारण रहा होगा कि वैचारिक स्तर पर साम्यवादी मॉडल अपने व्यावहारिक प्रयोग के सत्तर साल बाद ही चरमरा कर गिर पड़ा। सबसे पहले रूस में ही यह प्रयोग हुआ था और रूस में ही इसकी अंत्येष्टि की गई थी। वैसे कार्ल मार्क्स ने थीसिस और उसके एंटी थीसिस की बात उठाकर इस मॉडल के पतन की घोषणा स्वयं ही कर दी थी। भारत में साम्यवाद अपनी अधेड़ उम्र को भी पार कर चौथी अवस्था तक जा पहुंचा है और उसमें वे सारे लक्षण दिखाई देने लगे हैं, जिनकी भविष्यवाणी मार्क्स ने की थी। साम्यवाद संगठन के नाम पर अब देश में केवल सीपीएम ही बची है। सीपीआई, राजनीति विज्ञान में शोध करने वाले छात्रों के लिए केवल पुस्तकालयों तक सीमित हो गई है। सीपीएम का पश्चिमी बंगाल में बनाया गया बहुत पुराना किला, ममता बनर्जी ने बुरी तरह ध्वस्त कर दिया है। केरल में सीपीएम हर पांच साल बाद गद्दीनशीं हो जाती है, लेकिन उसके लिए उसे कई बार मुस्लिम लीग तक से गलबांही करनी पड़ती है। सत्ता आखिर सत्ता होती है, इसलिए सीपीएम को मुस्लिम लीग से जुड़ कर बैठने में भी दिक्कत नहीं होती।

अब यही समस्या त्रिपुरा में आ गई है। त्रिपुरा में भी सीपीएम का किला पुराना है, लेकिन लगता है अब यह किला भी पश्चिम बंगाल की तरह खतरे में पड़ गया है। त्रिपुरा में राष्ट्रवादी शक्तियों का जोर बढ़ता दिखाई दे रहा है। विधानसभा चुनाव को केवल कुछ दिन बचे हैं और शायद सीपीएम को स्वयं भी लगने लगा है कि प्रदेश में उभर रही राष्ट्रीय चेतना का मुकाबला वह अपने बलबूते नहीं कर सकती, इसलिए उसे नए साथी ढूंढने हैं। सीपीएम का दुर्भाग्य है कि त्रिपुरा में मुस्लिम लीग नहीं है। लेकिन आखिर चुनाव की लड़ाई तो उसे लड़नी होगी। पार्टी की केंद्रीय समिति की एक महत्त्वपूर्ण बैठक पिछले दिनों इसी समस्या को लेकर हुई। पार्टी महासचिव सीताराम येचुरी का प्रस्ताव था कि सोनिया कांग्रेस के साथ मिलकर भी साझा मोर्चा बनाया जा सकता है, क्योंकि पार्टी का उद्देश्य राष्ट्रवादी शक्तियों को परास्त करना है। वैसे वे अत्यंत सावधानी से राष्ट्रवादी शक्तियों के स्थान पर भाजपा-आरएसएस शब्द का प्रयोग करते हैं। उनका यह प्रस्ताव त्रिपुरा के आसन्न चुनावों को ध्यान में रखकर ही बनाया गया होगा। लेकिन पार्टी में ही दूसरे धड़े, जिसका नेतृत्व प्रकाश करात के हाथ में है, ने इस प्रस्ताव का विरोध किया और इसको पारित नहीं होने दिया। अब यह अप्रैल मास में होने वाली पार्टी बैठक में विचार-विमर्श हेतु प्रस्तुत किया जाएगा, लेकिन तब तक त्रिपुरा की विधानसभा के चुनाव हो लिए होंगे।

आखिर प्रकाश करात के धड़े ने इस प्रस्ताव का विरोध क्यों किया? इसमें पार्टी की अंदरूनी धडे़बंदी भी एक मुख्य कारण है, इससे कोई इनकार नहीं कर सकता। सीताराम येचुरी ने भी प्रस्ताव के गिर जाने के बाद परोक्ष रूप में इसका जिक्र किया है। प्रकाश करात धड़े की चिंता, ममता बनर्जी द्वारा बंगाल में लूट लिए जाने के बाद, किसी तरह अपने केरल के किले को बचाने की है। केरल में सीपीएम का सीधा मुकाबला सोनिया कांग्रेस से ही होता है। केरल में भी एक बार कांग्रेस और दूसरी बार कम्युनिस्ट शासन की परंपरा पक्की हो चुकी है। इस समय वहां कम्युनिस्ट पार्टी यानी सीपीएम का शासन है। परंपरा के मुताबिक अगली बार वहां सोनिया कांग्रेस का शासन हो सकता है, लेकिन सीताराम येचुरी कहते हैं कि अब सोनिया कांग्रेस के साथ तालमेल से ही चुनाव लड़ना चाहिए। इसका अर्थ हुआ कि केरल में अगला चुनाव सोनिया कांग्रेस और सीपीएम आपसी तालमेल से लड़ें। लेकिन किसके खिलाफ लड़ें? सीताराम येचुरी का प्रस्ताव इसका स्पष्ट संकेत देता है। राष्ट्रवादी शक्तियों के खिलाफ! प्रकाश करात धड़े के लोगों का मानना है कि त्रिपुरा के छोटे मकान को बचाने के लिए सीताराम येचुरी केरल के बड़े किले को भी लूट लिए जाने का बंदोबस्त कर रहे हैं, लेकिन इसमें कोई शक नहीं कि दोनों धड़े इस बात से सहमत हैं कि त्रिपुरा में पार्टी का आसन खतरे में पड़ चुका है। वहां राष्ट्रवादी शक्तियां मजबूत हुई हैं, परंतु इस उलझन से बाहर कैसे निकला जाए? त्रिपुरा को कैसे बचाया जाए?

प्रकाश करात के धड़े ने तो लगता है, चेयरमैन माओ की उस रणनीति को पकड़ लिया है जिसमें वह कहा करते थे कि कई बार बड़ी लड़ाई को जीतने के लिए छोटी लड़ाई हारनी पड़ती है। इस धड़े के लिए त्रिपुरा की लड़ाई छोटी लड़ाई है और भविष्य में केरल को लेकर होने वाली लड़ाई बड़ी है। इसलिए त्रिपुरा को हार जाना भी रणनीति का ही एक हिस्सा है। हो सकता है प्रकाश करात धड़े को यह भी लगता हो कि केरल में राष्ट्रवादी शक्तियों की दस्तक अभी उतनी ताकतवर नहीं है, जिसकी कल्पना सीताराम कर रहे हैं। या फिर उनको विश्वास है कि यदि यह दस्तक जोरदार भी होगी तो मुख्यमंत्री विजयन उसको कन्नूर शैली में निपटा सकते हैं। ध्यान रहे केरल के कन्नूर जिले में साम्यवादियों द्वारा राष्ट्रवादी शक्तियों के अनेक कार्यकर्ता बुरी तरह मारे जा चुके हैं। वहां शासकीय समर्थन से आरएसएस के अनेक समर्थकों की नृशंस हत्या कर दी गई है। हो सकता है कि सीपीएम के प्रकाश करात धड़े का यह मानना हो कि केरल में तो राष्ट्रवादी ताकतों को हिंसा के बल पर भी कुचला जा सकता है। इसलिए वहां सोनिया कांग्रेस से तालमेल करने की जरूरत नहीं है। पिछली यूपीए सरकार के साथ हमबिस्तर होने का नुकसान सीपीएम पहले ही देख चुकी है। इस स्थिति में यदि सीताराम की सलाह मान कर त्रिपुरा में कांग्रेस से गलबाहीं की गई, तो केरल में सामान्य जन की बात तो दूर अपने लोगों से आंख मिलाना मुश्किल हो जाएगा। इसलिए त्रिपुरा की लड़ाई अपने बलबूते ही लड़नी चाहिए, लेकिन सीताराम येचुरी जानते हैं कि सीपीएम के लिए अपने बलबूते लड़ाई लड़ने के दिन जा चुके हैं।

वे दिन हवा हुए जब खलील खां फाख्ता उड़ाया करते  थे। किस्सा कोताह यह कि सीपीएम को यह एहसास हो गया लगता है कि उसके अपने गढ़ केरल और त्रिपुरा में राष्ट्रवादी ताकतों ने जोर से दस्तक दे दी है। पार्टी के भीतर बहस केवल इस बात को लेकर हो रही है कि उसका मुकाबला कैसे करना है। पिछले दिनों एक इंटरव्यू में जब येचुरी से पूछा गया कि आपको पार्टी में कांग्रेस का समर्थक कहा जाने लगा है तो उन्होंने कहा कहने के लिए तो मैं भी दूसरों को पार्टी में बीजेपी का समर्थक कह सकता हूं। कभी यह स्थिति कांग्रेस की हुआ करती थी। पार्टी में नेहरू धड़े को साम्यवादियों/ समाजवादियों का आदमी कहा जाता था और सरदार पटेल, पुरुषोत्तम दास टंडन इत्यादि को राष्ट्रवादी शक्तियों का आदमी कहा जाने लगा था। उन दिनों भी राष्ट्रवादी शक्तियों से अभिप्राय आरएसएस/जनसंघ ही होता था। आज सीपीएम के भीतर भाजपा समर्थक तलाशे जा रहे हैं। समय की गति न्यारी रे साधो! कामरेड, उठाओ दास केपिटल, शायद प्रकाश की कोई किरण नजर आ जाए।

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