सुक्खू का तीर

हम अगर इसे सियासी गोल पोस्ट से हटकर देखें, तो हिमाचल कांग्रेस ने अपने निर्वाह और विपक्षी धर्म के निर्वहन में इजाफा करते हुए खेलना शुरू कर दिया है। चुनाव परिणाम के बाद कांग्रेस जिस सदमे में चली गई थी, उससे बाहर निकलने की कोशिश में पार्टी के प्रदेशाध्यक्ष सुखविंदर सिंह सुक्खू ने कुछ सुर्खियां बटोरीं, तो हलचल सत्ता शृंगार तक हुई। सुक्खू ने हिमाचल के चार भाजपा सांसदों से हिसाब मांगना शुरू ही किया है कि चारों ओर बरतन खड़कने शुरू हो गए। भाजपा के अगले पड़ाव की कसरतों को कांग्रेस किस प्रकार देखती है, इसका एक प्रमाण सुक्खू ने पेश कर दिया है। इसमें दो राय नहीं कि जब भाजपा ने हिमाचल की पूर्व सरकार से हिसाब मांगना शुरू किया था, तो मुद्दे जुड़ते गए और विपक्षी कर्मठता बढ़ती गई। तब जवाब मांगने का ढंग और पार्टी की ताकत का इजहार एक साथ काम कर  रहे थे, इसलिए यह मानना पड़ेगा कि भाजपा ने सत्ता प्राप्ति की मेहनत में पूरे कुनबे को साथ चलाया। यही अंतर भी दिखाई दिया, जिसने कांग्रेसी अभियान को चुनाव में कमजोरी से जाहिर किया। बहरहाल पार्टी अध्यक्ष सुखविंदर उस दौर से मुक्त होकर अपनी हस्ती के आंचल में प्रदेश कांग्रेस को देख रहे हैं और इस तरह की ताल ठोंककर वह आगामी लोकसभा चुनाव का बिगुल भी फूंक रहे हैं। राजनीतिक तौर पर उन्हें इसका दोहरा सियासी लाभ मिलेगा। भाजपा सांसदों से हिसाब पूछ कर सुक्खू मोर्चे पर मूंछें दिखाकर विपक्ष के ताकतवर नेता बन जाते हैं, तो अपनी पार्टी को आगे बढ़ने का मार्ग प्रशस्त करके भीतरी हिसाब भी पुख्ता कर लेते हैं। चुनावी परिणामों ने भी सुक्खू को अवसर दिया है कि वह अपनी भूमिका के अनुरूप प्रदेश कांग्रेस को चलाने का लक्ष्य निर्धारित करें। इस लक्ष्यभेदी बयान की तरकश से सुक्खू जितने तीर निकालेंगे, उनके पराक्रम, औचित्य और दस्तूर को लोकसभा चुनाव की कमान पुख्ता करेगी। यह इसलिए कि भाजपा सांसदों से हिसाब मांगना उतना ही महत्त्व रखता है, जितना मोदी बजट से हिसाब लेना। हिमाचल की नई भाजपा सरकार की जिम्मेदारी में पार्टी को लोकसभा चुनाव की सफलता का हर मानदंड सुरक्षित रखना है, इसलिए सांसदों का रिपोर्ट कार्ड परेशान कर सकता है। मोदी सरकार के लगातार चार सालों के बजटीय प्रावधानों की उपज में भाजपा सांसदों को अब बताना पड़ेगा कि वे हिमाचल के लिए किस रूपरेखा पर काम करते रहे हैं। यह हिमाचली अधिकारों की बहस का एक पुराना हिस्सा है, जो कमोबेश हर लोकसभा चुनाव में सामने डट जाता है। प्रदेश के आर्थिक संसाधनों, सामाजिक संदर्भों और सैन्य पृष्ठभूमि से निकलते प्रश्न हर बार पूछे जाते हैं, लेकिन देश की राजनीति में चार सांसदों का आंकड़ा बौना ही रह जाता है। इसलिए हर तरह की कुर्बानियों का इतिहास रचने वाले हिमाचल के पन्नों की सियाही सूख जाती है, लेकिन केंद्रीय सरकारों का रवैया नहीं बदलता। पौंग-भाखड़ा जलाशयों के कारण विस्थापित हुए हिमाचली परिवेश की अनुगूंज कोई नहीं सुनता। बीबीएमबी से अपने हक की लड़ाई आज तक किसी फैसले तक नहीं पहुंची और न ही नंगल से निकली ट्रेन तलवाड़ा पहुंची। पर्वतीय होने की सजा तो मिलती रही, लेकिन प्राकृतिक संसाधन यूं ही बह जाते हैं। न कोई हर्जाना और न ही कोई पैमाना। जल संसाधनों को कच्चे माल की श्रेणी में लाने की कोई कोशिश नहीं और वन संरक्षण अधिनियम की जंजीरों से मुक्त होने की ताकत नहीं। रेल की पटरियों पर सवार राजनीति को पूरा प्रदेश देखता है, लेकिन सर्वेक्षणों के आकार पर अफसोस होता है। यह दीगर है कि पूर्ववर्ती कांग्रेसी सत्ता के दौरान दीवारें ऊंची उठती रहीं, कभी स्वां तटीकरण की राशि को जंग लगा तो कभी केंद्रीय विश्वविद्यालय की स्थापना पर जंग रही। इस दौरान कई केंद्रीय संस्थान केवल सियासी परिधान में देखे गए, जबकि हकीकत में एम्स की नींव के पत्थर भी चुनावी रहे। बेशक सांसदों से पूछने का अवसर कांग्रेस को मिल रहा है, लेकिन सियासी बादलों के फटने का इंतजार, हमेशा जनता को ही डराने के लिए क्यों हो। केंद्र के सामने कब हिमाचली पक्ष सियासत से हटकर होगा, इसका उत्तर दोनों प्रमुख पार्टियों को बताना है।