एकतरफा नहीं चलता मुक्त व्यापार

डा. अश्वनी महाजन

एसोसिएट प्रोफेसर, पीजीडीएवी कालेज, दिल्ली विश्वविद्यालय

वास्तव में यदि भारत सरकार अंतरराष्ट्रीय समझौतों का अनुपालन करते हुए, देश के उद्योगों का संरक्षण और संवर्द्धन करने में सफलता प्राप्त करती है तो यह वास्तव में अभिनंदनीय प्रयास होगा। दुर्भाग्य का विषय यह है कि वे लोग जो भारत सरकार पर संरक्षणवादी नीति अपनाने का आरोप लगा रहे हैं, उन्होंने इस बात का अध्ययन नहीं किया है कि इस निर्णय में अंतरराष्ट्रीय समझौतों का उल्लंघन हो भी रहा है या नहीं…

पिछले लगभग 27 वर्षों से चल रही भूमंडलीकरण की प्रक्रिया और 23 वर्षों से विश्व व्यापार संगठन के रूप में चल रही नियम आधारित वैश्विक व्यापार प्रणाली के चलते टैरिफ  और गैर टैरिफ  बाधाओं को समाप्त करने की प्रवृत्ति रही और मुक्त व्यापार एक परंपरा के रूप में स्थापित हुआ। विश्व व्यापार समझौतों के विपरीत यदि कोई सदस्य देश टैरिफ बढ़ाता है, या गैर-टैरिफ  बाधाएं खड़ी करता है, तो उसके कारण प्रभावित हो रहे देश विश्व व्यपार संगठन की विवाद निपटारण व्यवस्था का लाभ उठा सकते हैं और इन बाधाओं से निजात पा सकते हैं। कुछ समय पूर्व तक कोई भी देश सामान्यतः घोषित रूप से संरक्षणवाद के पक्ष में तर्क भी नहीं देता था। बल्कि पूर्व में विभिन्न देशों द्वारा जो टैरिफ  और गैर टैरिफ  बाधाएं लगाई भी हुई थी, वे भी क्रमशः समाप्त कर दी गई। भारत में आने वाले आयातों पर 400 प्रतिशत तक के आयात शुल्क और 1400 से अधिक वस्तुओं पर मात्रात्मक नियंत्रण भी पूर्व में  लगे हुए थे।

ध्यात्वय है कि कुछ अपवादों को छोड़कर सामान्यतः शून्य से 10 प्रतिशत का ही आयात शुल्क अभी लागू है और किसी भी वस्तु के आयात पर आज मात्रात्मक नियंत्रण नहीं है। पिछले लगभग 16-17 वर्षों में दुनिया भर के बाजार चीनी सामान से पट गए। लोहा, इस्पात, एल्यूमीनियम और अन्य धातुएं, इलेक्ट्रॉनिक्स और टेलीकॉम उपकरण, इन्फ्रास्ट्रक्चर एवं परियोजना वस्तुएं, उर्वरक, रसायन, दवाइयां और उसके लिए कच्चा माल और दिन-प्रतिदिन काम आने वाली तमाम वस्तुओं का अधिकांश आयात चीन से होने लगा। एक ओर चीन दुनिया के मैन्यूफेक्चरिंग हब (केंद्र) के रूप में परिवर्तित हो गया और दूसरी ओर अधिकांश देशों का चीन के साथ व्यापार घाटा बढ़ता गया। सभी देशों में स्वाभाविक रूप से मैन्यूफेक्चरिंग गतिविधियां बाधित होने लगीं और रोजगार के अवसर नष्ट होने लगे। अमरीका के वर्तमान राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप जब राष्ट्रपति पद पर चुनाव लड़ रहे थे, उन्होंने अपने चुनाव अभियान पर इस बात की चर्चा की कि अमरीका की फैक्टरियों में जंग लग चुका है और रोजगार के अवसर नष्ट हो रहे हैं। उन्होंने यह भी कहा कि मुक्त व्यापार के नाम पर इस भयावह स्थिति को जारी नहीं रखा जा सकता, इसलिए राष्ट्रपति बनने के बाद वह ऐसी व्यापार नीति लाएंगे ताकि घरेलू उद्योग पुनर्जीवित हो और उनका संरक्षण हो सके। चीन द्वारा भारी मात्रा में डंपिंग करने के कारण हमारे स्वतंत्र (गैर सहायक) लघु उद्योग भारी मात्रा में बंद हो चुके हैं। बचे हुए अधिकांश लघु उद्योग सहायक (ऐंसिलरी) उद्योग ही हैं, जो ऑटोमोबाईल, दवाइयों, रसायन, उपभोक्ता वस्तु (चिरस्थायी और अन्य) आदि के लिए कलपुर्जे एवं मध्यवर्ती वस्तुएं बनाते हैं। इसका असर यह हुआ कि जीडीपी में मेन्यूफैक्चरिंग का हिस्सा या तो स्थिर रहा, या कई वर्षों में घट गया। यह सत्य है कि भारत के उद्योग चीन से सस्ते सामानों के आयातों की प्रतिस्पर्द्धा में ठहर नहीं पाए और बाजार से बाहर हो गए। हमारा इलेक्ट्रॉनिक्स क्षेत्र, मोबाईल फोन, टेलीकॉम, मशीनरी उद्योग, रसायन उद्योग और दवाई उद्योग बुरी तरह से प्रभावित हुआ। लेकिन विश्व व्यापार संगठन का समझौता इस कदर हावी रहा कि उद्योगों के संरक्षण की कोई बात ही नहीं करता था।

केवल विश्व व्यापार संगठन में समझौता ही नहीं, बल्कि भारत के नीति निर्माताओं और मुख्यधारा के अर्थशास्त्रियों का मुक्त व्यापार की अवधारणा में विश्वास भी एक कारण था, कि विश्व व्यापार संगठन समझौतों में कुछ लचीलापन होने पर भी कभी आयात शुल्क बढ़ाने पर विचार नहीं हो पाया। बल्कि विभिन्न वस्तुओं के आयात पर समझौते में प्रतिबद्ध दरों से कहीं कम आयात शुल्क लगाए गए। इन दरों को बढ़ाने के प्रयास भी बहुत कम हुए। समय-समय पर अन्य देशों द्वारा विश्व व्यापार संगठन के नियमों एवं समझौतों का उल्लंघन होने पर विवाद निपटारण न्यायालय में प्रभावित देशों ने मुकदमे दायर किए, लेकिन इन उल्लंघनों को अपवाद ही माना जाएगा। लेकिन कुछ समय से विभिन्न अर्थव्यवस्थाओं पर पड़ रहे दुष्प्रभावों के कारण उन देशों में मुक्त व्यापार के विरोध में स्वर मुखर होने लगे हैं। पहले डोनाल्ड ट्रंप के लगातार बयानों और उनके राष्ट्रपति बनने के बाद विदेशों (और विशेषतौर पर चीन) से आने वाले आयातों पर अंकुश लगाने के लिए आयात शुल्क बढ़ाने संबंधी निर्णय के बाद पूरी दुनिया में एक बहस शुरू हो गई है कि क्या विश्व संरक्षणवाद के रास्ते पर चलने लगा है? ऐसे में विश्व आर्थिक मंच की बैठक में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के इस वक्तव्य कि संरक्षणवाद, आतंकवाद से भी अधिक चिंताजनक है, के बाद बजट 2018-19 में, भारतीय उद्योगों के संरक्षण के लिए आयात शुल्क बढ़ाने का निर्णय मुक्त व्यापार समर्थक अर्थशास्त्रियों को पच नहीं रहा है। यह भी सही है कि यदि मुक्त व्यापार ईमानदारी से लागू हो, तो उसका लाभ सभी देशों को मिल सकता है। यह संभव है कि लगातार संरक्षण देने से संबंधित उद्योगों में अकुशलता विकसित हो जाती है। इसलिए उनका विकास बाधित हो जाता है। लेकिन देखने में आ रहा है कि चीनी सरकार द्वारा सबसिडी देकर, चीन से आने वाला सामान, अत्यंत कम कीमत पर दुनिया भर में डंप हो रहा है। इसलिए भारत सरकार ने पिछले कुछ समय में तेजी से एंटी-डंपिंग ड्यूटी लगाने की प्रक्रिया को तेज किया है। आज चीन से आयातों पर 100 से अधिक वस्तुओं पर एंटी-डंपिंग ड्यूटी लगाई है। एंटी डंपिंग ड्यूटी लगाना अत्यंत कठिन प्रक्रिया है।

यह तभी संभव है, जब देश के उद्योगों को होने वाले नुकसान को सत्यापित किया जा सके, क्योंकि विश्व व्यापार संगठन में इसके खिलाफ शिकायत दर्ज होने पर, भारत सरकार को इसके औचित्य को सिद्ध करना पड़ेगा। चूंकि विश्व व्यापार संगठन के समझौतों में भी संभव आयात शुल्क से कहीं कम शुल्क ही वास्तव में लगाया जा रहा है। इसलिए अंतरराष्ट्रीय समझौतों में अधिकृत आयात शुल्क लगाना संरक्षणवाद नहीं कहा जा सकता। वास्तव में यदि भारत सरकार अंतरराष्ट्रीय समझौतों का अनुपालन करते हुए, देश के उद्योगों का संरक्षण और संवर्द्धन करने में सफलता प्राप्त करती है तो यह वास्तव में अभिनंदनीय प्रयास होगा। दुर्भाग्य का विषय यह है कि वे लोग जो भारत सरकार पर संरक्षणवादी नीति अपनाने का आरोप लगा रहे हैं, उन्होंने इस बात का अध्ययन नहीं किया है कि इस निर्णय में अंतरराष्ट्रीय समझौतों का उल्लंघन हो भी रहा है या नहीं। वास्तव में यदि ऐसा नहीं है तो उनकी आलोचना गलत ही नहीं, बल्कि देश के उद्योगों और अर्थव्यवस्था के हितों के खिलाफ भी है। यही नहीं, अमरीकी सरकार द्वारा संरक्षणवादी नीति अपनाने के बाद भारत सहित अन्य देशों को भी अपनी मुक्त व्यापार नीति पर पुनर्विचार करना होगा। वास्तव में मुक्त व्यापार एकतरफा नहीं हो सकता। हमें अपनी व्यापार नीति अन्य देशों के रुख को देखते हुए ही बनानी पड़ेगी। कहा जा सकता है कि मुक्त व्यापार सैद्धांतिक रूप से सही होने पर भी इसका भविष्य इस बात पर निर्भर करेगा कि अन्य देशों की मुक्त व्यापार में कितनी निष्ठा है।

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