फणीश्वरनाथ : पहले ही उपन्यास ने लिख दी सफलता की कहानी

जन्म दिवस विशेष

फणीश्वरनाथ रेणु (जन्म : 4 मार्च, 1921 – मृत्यु : 11 अप्रैल, 1977) एक सुप्रसिद्ध हिंदी साहित्यकार थे। हिंदी कथा साहित्य के महत्त्वपूर्ण रचनाकार फणीश्वरनाथ रेणु का जन्म बिहार के पूर्णिया जिला के औराही हिंगना गांव में हुआ था। रेणु के पिता शिलानाथ मंडल संपन्न व्यक्ति थे। भारत के स्वाधीनता संघर्ष में उन्होंने भाग लिया था। रेणु के पिता कांग्रेसी थे। रेणु का बचपन आजादी की लड़ाई को देखते-समझते बीता। रेणु ने स्वयं लिखा है-पिताजी किसान थे और इलाके के स्वराज-आंदोलन के प्रमुख कार्यकर्ता। खादी पहनते थे, घर में चरखा चलता था। स्वाधीनता संघर्ष की चेतना रेणु में उनके पारिवारिक वातावरण से आई थी। रेणु भी बचपन और किशोरावस्था में ही देश की आजादी की लड़ाई से जुड़ गए थे। 1930-31 ईस्वी में जब रेणु अररिया हाई स्कूल के चौथे दर्जे में पढ़ते थे, तभी महात्मा गांधी की गिरफ्तारी के बाद अररिया में हड़ताल हुई, स्कूल के सारे छात्र भी हड़ताल पर रहे। रेणु ने अपने स्कूल के असिस्टेंट हेडमास्टर को स्कूल में जाने से रोका। रेणु को इसकी सजा मिली, लेकिन इसके साथ ही वे इलाके के बहादुर सुराजी के रूप में प्रसिद्ध हो गए।

शिक्षा

रेणु की प्रारंभिक शिक्षा फॉरबिसगंज तथा अररिया में हुई। रेणु ने प्रारंभिक शिक्षा के बाद मैट्रिक नेपाल के विराटनगर के विराटनगर आदर्श विद्यालय से कोईराला परिवार में रहकर की। रेणु ने इंटरमीडिएट काशी हिंदू विश्वविद्यालय से 1942 में की और उसके बाद वह स्वतंत्रता संग्राम में कूद पड़े। 1950 में रेणु ने नेपाली क्रांतिकारी आंदोलन में भी भाग लिया।

समाजवाद और बिहार सोशलिस्ट पार्टी

बाद में रेणु पढ़ने के लिए बनारस चले गए। बनारस में रेणु ने स्टुडेंट्स फेडरेशन के कार्यकर्ता के रूप में भी कार्य किया। आगे चलकर रेणु समाजवाद से प्रभावित हुए। वह 1938 ईस्वी में सोनपुर, बिहार में समर स्कूल ऑफ पॉलिटिक्स में शामिल हुए। इस स्कूल के प्रिंसिपल जयप्रकाश नारायण थे और कमला देवी चट्टोपाध्याय, मीनू मसानी, अच्युत पटवर्धन, नरेंद्र देव, अशोक मेहता जैसे लोगों ने इस स्कूल में शिक्षण कार्य किया था। इसी स्कूल में भाग लेने के बाद रेणु समाजवाद और बिहार सोशलिस्ट पार्टी से जुड़ गए। समाजवाद के प्रति रुझान पैदा करने वाले लोगों में रेणु रामवृक्ष बेनीपुरी का भी नाम लेते हैं।

राजनीति और आंदोलन

वे सिर्फ सृजनात्मक व्यक्तित्व के स्वामी ही नहीं बल्कि एक सजग नागरिक व देशभक्त भी थे। 1942 के भारत छोड़ो आंदोलन में उन्होंने सक्रिय रूप से योगदान दिया। इस प्रकार एक स्वतंत्रता सेनानी के रूप में उन्होंने अपनी पहचान बनाई। इस चेतना का वे जीवनपर्यंत पालन करते रहे और सत्ता के दमन और शोषण के विरुद्ध आजीवन संघर्षरत रहे। 1950 में बिहार के पड़ोसी देश नेपाल में राजशाही दमन बढ़ने पर वे नेपाल की जनता को राणाशाही के दमन और अत्याचारों से मुक्ति दिलाने के संकल्प के साथ वहां पहुंचे और वहां की जनता द्वारा जो सशस्त्र क्रांति व राजनीति की जा रही थी, उसमें सक्रिय योगदान दिया। दमन और शोषण के विरुद्ध आजीवन संघर्षरत रहे रेणु ने सक्रिय राजनीति में भी हिस्सेदारी की। 1952-53 के दौरान वे बहुत लंबे समय तक बीमार रहे। फलस्वरूप वे सक्रिय राजनीति से हट गए। उनका झुकाव साहित्य सृजन की ओर हुआ। 1954 में उनका पहला उपन्यास ‘मैला आंचल’ प्रकाशित हुआ। मैला आंचल उपन्यास को इतनी ख्याति मिली कि रातों-रात उन्हें शीर्षस्थ हिंदी लेखकों में गिना जाने लगा। जीवन के सांध्यकाल में राजनीतिक आंदोलन से उनका पुनः गहरा जुड़ाव हुआ। 1975 में लागू आपातकाल का जेपी के साथ उन्होंने भी कड़ा विरोध किया। सत्ता के दमनचक्र के विरोध स्वरूप उन्होंने पद्मश्री की मानद उपाधि लौटा दी। उनको न सिर्फ आपात स्थिति के विरोध में सक्रिय हिस्सेदारी के लिए पुलिस यातना झेलनी पड़ी, बल्कि जेल भी जाना पड़ा। 23 मार्च 1977 को जब आपात स्थिति हटी तो उनका संघर्ष सफल हुआ। परंतु वे इसके बाद अधिक दिनों तक जीवित न रह पाए। रोग से ग्रसित उनका शरीर जर्जर हो चुका था।

लेखन कार्य

फणीश्वरनाथ रेणु ने 1936 के आसपास से कहानी लेखन की शुरुआत की थी। उस समय कुछ कहानियां प्रकाशित भी हुई थीं, किंतु वे किशोर रेणु की अपरिपक्व कहानियां थी। 1942 के आंदोलन में गिरफ्तार होने के बाद जब वे 1944 में जेल से मुक्त हुए, तब घर लौटने पर उन्होंने ‘बटबाबा’ नामक पहली परिपक्व कहानी लिखी। यह साप्ताहिक विश्वमित्र के 27 अगस्त 1944 के अंक में प्रकाशित हुई। रेणु की दूसरी कहानी ‘पहलवान की ढोलक’ 11 दिसंबर 1944 को साप्ताहिक विश्वमित्र में छपी। 1972 में रेणु ने अपनी अंतिम कहानी ‘भित्तिचित्र की मयूरी’ लिखी। उनकी अब तक उपलब्ध कहानियों की संख्या 63 है। रेणु को जितनी प्रसिद्धि उपन्यासों से मिली, उतनी ही प्रसिद्धि उनको उनकी कहानियों से भी मिली।

रचनाएं

रेणु की कुल 26 पुस्तकें हैं। इन पुस्तकों में संकलित रचनाओं के अलावा भी काफी रचनाएं हैं जो संकलित नहीं हो पाईं, कई अप्रकाशित आधी-अधूरी रचनाएं हैं। असंकलित पत्र पहली बार रेणु रचनावली में शामिल किए गए हैं।

उपन्यास

मैला आंचल 1954, परती परिकथा 1957, जुलूस 1965, दीर्घतपा 1964 (जो बाद में कलंक मुक्ति (1972) नाम से प्रकाशित हुई), कितने चौराहे 1966, पल्टू बाबू रोड 1979

कथा-संग्रह

आदिम रात्रि की महक 1967, ठुमरी 1959, अगिनखोर 1973, अच्छे आदमी 1986

प्रसिद्ध कहानियां

मारे गए गुलफाम, एक आदिम रात्रि की महक, लाल पान की बेगम, पंचलाइट, तबे एकला चलो रे, ठेस, संवदिया

प्रकाशित पुस्तकें

वनतुलसी की गंध 1984, एक श्रावणी दोपहरी की धूप 1984, श्रुत अश्रुत पूर्व 1986, अच्छे आदमी 1986, एकांकी के दृश्य 1987, रेणु से भेंट 1987, आत्म परिचय 1988, कवि रेणु कहे 1988, उत्तर नेहरू चरितम् 1988, फणीश्वरनाथ रेणु-चुनी हुई रचनाएं 1990, समय की शिला पर 1991, फणीश्वरनाथ रेणु अर्थात् मृदंगिए का मर्म 1991, प्राणों में घुले हुए रंग 1993, रेणु की श्रेष्ठ कहानियां 1992, चिठिया हो तो हर कोई बांचे (यह पुस्तक प्रकाश्य में है)

सम्मान और पुरस्कार

फणीश्वरनाथ रेणु को अपने प्रथम उपन्यास मैला आंचल के लिए पद्मश्री से सम्मानित किया गया।

निधन

रेणु सरकारी दमन और शोषण के विरुद्ध ग्रामीण जनता के साथ प्रदर्शन करते हुए जेल गए। रेणु ने आपातकाल का विरोध करते हुए अपना पद्मश्री का सम्मान भी लौटा दिया। इसी समय रेणु ने पटना में लोकतंत्र रक्षी साहित्य मंच की स्थापना की। इस समय तक रेणु को पैप्टिक अल्सर की गंभीर बीमारी हो गई थी। 11 अप्रैल 1977 ई. को रेणु उसी पैप्टिक अल्सर की बीमारी के कारण चल बसे।

मैला आंचल : वस्तु-शिल्प का अलग नमूना

रेणु जी का मैला आंचल वस्तु और शिल्प दोनों स्तरों पर सबसे अलग है। इसमें एक नए शिल्प में ग्रामीण-जीवन को चित्रित किया गया है। इसकी विशेषता है कि इसका नायक कोई व्यक्ति (पुरुष या महिला) नहीं वरन् पूरा का पूरा अंचल ही इसका नायक है। मिथिलांचल की पृष्ठभूमि पर रचे इस उपन्यास में उस अंचल की भाषा विशेष का अधिक से अधिक प्रयोग किया गया है। यह प्रयोग इतना सार्थक है कि वह वहां के लोगों की इच्छा-आकांक्षा, रीति-रिवाज, पर्व-त्योहार, सोच-विचार को पूरी प्रामाणिकता के साथ पाठक के सामने उपस्थित करता है। इसकी भूमिका 9 अगस्त 1954 को लिखते हुए रेणु कहते हैं-यह है मैला आंचल, एक आंचलिक उपन्यास। इस उपन्यास के केंद्र में है बिहार का पूर्णिया जिला, जो काफी पिछड़ा है। रेणु कहते हैं, इसमें फूल भी है, शूल भी, धूल भी है, गुलाब भी, कीचड़ भी है, चंदन भी, सुंदरता भी है, कुरूपता भी, मैं किसी से दामन बचाकर नहीं निकल पाया।