भक्ति आत्मिक है

बाबा हरदेव

तत्त्व ज्ञानियों का मत है कि नैतिकता अकारण है, इसमें वासना नहीं होती, मानो नैतिकता अखंड चेतना की श्वास है। नैतिकता अतर्क्य है, यह होती है तो होती है, नहीं होती है, तो नहीं होती, कोई चेष्ट करके नैतिकता नहीं ला सकता। नैतिकता कोई उपकरण नहीं है। नैतिकता सभी परमात्मा से लेकर पैदा होते हैं यह तो उपलब्धि ही है। नैतिकता कोई ठहरी हुई घटना नहीं है, यह तो सतत भाव है यह तो एक कला है जैसे प्रेम घटित होता है, वैसे ही नैतिकता घटती है, क्योंकि नैतिकता मन का हिस्सा नहीं है। चुनांचे नैतिकता का अर्थ होता है कि मन को  चेहरे बुद्धि से एक तरफ रखकर अलग कर देना, अपनी सारी धारणाएं और मान्यताएं, छोड़ देना सब सोच-विचार और साधना आदि को तिलांजलि दे देना पूर्ण सद्गुरु का अमलोक ईशारा अपने हृदय में बिठा देना। अब नैतिकता जीवन में उसको खोजती है, जिसका इशारा परमात्मा की तरफ है, जबकि तर्क (बुद्धि) वह खोजता है, जिसका इशारा परमात्मा के विपरीत है, क्योंकि तर्क है परमात्मा के विपरीत यात्रा और नैतिकता है, परमात्मा की तरफ यात्रा। तर्क का शास्त्र है, यह सीखना पड़ता है, मगर नैतिकता को कोई शास्त्र नहीं है। महात्माओं का कथन है कि ‘नैतिकता’ ‘ब्रह्मा भाव’ है। भक्ति आत्मिक है, ‘व्यक्ति भाव’ है, ध्यान मानसिक है। चुनांचे नैतिकता वर्तमान में देखती है, जबकि तर्क भविष्य निमुख है। नैतिक व्यक्ति जो भी करता है परिपूर्ण हृदय से करता है और जो भी परिपूर्ण हृदय से किया जाता है, इससे आनंद उपलब्ध होने लगता है, चूंकि नैतिक व्यक्ति परमात्मा की रजा में लीन रहता है, इसीलिए विनम्रता, समर्पण भाव और दयालुता जैसे उत्तम गुण इसकी जीवन शैली बन जाते हैं। मानो नैतिकता इन सब गुणों की जनक है। वास्तविकता यह है कि नैतिकता का भाव तो मनुष्य जीवन में हरि (परमात्मा) की प्राप्ति के बाद ही शुरू होता है, क्योंकि धर्म नैतिकता है, नैतिकता धर्म नहीं है, इसमें बहुत फर्क है, अगर नैतिकता धर्म है तो नैतिकता धर्म से ऊपर होगी, मगर ऐसा नहीं है। चूंकि आध्यात्मिक जगत में धर्म नैतिकता है, इसीलिए मनुष्य को पहले धार्मिकता के रहस्य को पूर्ण सद्गुरु द्वारा समझ लेना जरूरी है, फिर मनुष्य नैतिक ही हो जाएगा। नैतिकता फिर छाया की तरह मनुष्य के साथ आएगी, ऐसी नैतिकता तो बस होगी, मानो मनुष्य ऐसी नैतिकता में समा जाएगा और मनुष्य फिर नैतिकता के पीछे भी नहीं खड़ा होगा और न ही नैतिकता का उपयोग करने के बाद पीछे खड़ा होकर देखेगा, बल्कि इस सूरत में नैतिकता का उपयोग करके आप पीछे हट जाएगा, यहां तक कि मनुष्य को यह भी ख्वाहिश नहीं होगी कि कोई उसे धन्यवाद दे। इस प्रकार की नैतिकता को शब्द भी पूरा नहीं कह पाता। ऐसी धार्मिक नैतिकता तो मनुष्य का आनंद होती है, मनुष्य का उत्सव होती है। चुनांचे जब कोई परमात्मा से भर जाता है तो इसके जीवन में नैतिकता प्रफुल्लित होती है और यह नैतिकता ऐसी ही सहज है जैसे श्वास का चलना, हृदय का धड़कना, सुबह सूर्य का निकलना, रात को चांद का  निकलना और नदियों का सागर की तरफ बहना, जैसे फूलों का खिलना और उनकी सुगंध का हवा में बिखर जाना। नैतिकता से भरा हुआ व्यक्ति ऐसे ही है जैसे मेघ जल से भरा हुआ होता है और प्यासी धरती पर बिना शर्त के बरसने के लिए तैयार होता है। आध्यात्मिक जगत में नैतिकता सबसे मूल्यवान तत्त्व है। नैतिकता से भरा जीवन सबसे बड़ी संपदा है।