स्मृति के आईने में सुनील

स्मृति विशेष

इनसान की फितरत हमेशा पाने और आजमाने की रही है और इसी हिसाब से हम अपने इर्द-गिर्द अच्छे-बुरे का चयन कर लेते हैं या कोई दूसरा आपको चुन लेता है। हिमाचली पत्रकारों की धूप-छांव के बीच अचानक एक चेहरा सामने आता है, जो शिमला की तहों में फंसे तथ्य की नींव सरीखा होता गया। ‘दिव्य हिमाचल’ के इस परिंदे ने हर दिन उड़ानें भरीं, लेकिन परिवार का घरौंदा उसे सुकून देता रहा। वाकई आंसुओं के सैलाब में जब बिलासपुर का श्मशानघाट, सतलुज के किनारे डूब रहा था तो पत्रकारिता अपने रिश्ते खोज रही थी। पत्रकारों का झुंड चिंताग्रस्त और सामने हमारा अपना शरीर आग के हवाले। हमारे प्रश्नों के साथ खामोश सुनील शर्मा, कई प्रश्न छोड़ गया। यह भूलना असंभव है कि शिमला से सुप्रभात भरा संदेश नहीं आएगा या रात्रि विश्राम से पहले किसी पुराने गाने की दर्दभरी आवाज के साथ सुनील का व्हाट्सऐप नहीं गूंजेगा। शिमला ब्यूरो के हस्ताक्षरों में शून्यता और दोपहर डेस्क की बैठक से पूर्व सूचना का अभाव। दफ्तर का स्वागत कक्ष पूरी तरह व्यस्त। आते-जाते फोन की घंटियों के बीच डायरेक्टरी पर चढ़ा सुनील का नंबर कफन ओढ़ कर सो गया। अंगुलियों का स्पर्श एक नंबर टटोलता है और इंतजार रहता है कि कान में अचानक कोई ठहाका सुनाई दे। बताए तो सही कि जिस खुद्दारी ने ‘दिव्य हिमाचल’ के साथ नाता जोड़ा, उसके चर्चे केवल उसके ही तो नहीं। कहीं तो बरसात में बादलों का अस्तित्व टूटता होगा या लौ के पीछे बाती का जलना भी रसीद होता होगा। जो कल तक फौलाद था, आज क्यों पिघल गया। मानो पत्रकारिता के सांचे टूट गए और किसी मरुस्थल से पूछा जा रहा है कि हरियाली ने दामन क्यों छोड़ा। आखिर उस घर का क्या कसूर, उस सिंदूर का क्या दर्द होगा, जो परिवार के नाम पर एक खालीपन के सिवाय कुछ नहीं। ज्यादा समय नहीं गुजरा जब पिता जी के चतुर्थ श्राद्ध के विज्ञापन की जगह मांग रहे सुनील को यह मालूम नहीं था कि अखबारी मातम में एक दिन वह इतनी जमीन समेट लेगा कि दुनिया खाली हो जाएगी। दिल संग्रहालय बनकर इन यादों का तब तक संरक्षण करता रहेगा, जब तक धड़कनें चलती रहेंगी। बारह साल की मिताली कभी सुनील का जुनून थी, तो अब मां का आंचल बनकर ढाढस बंधाती और आंख के किसी कोने में आंसू छुपा लेती है। सुनील की दर्दभरी कविता-कहानी बनकर पत्नी, रजनी जो खो चुकी है, उसे सांत्वना से भरना मुश्किल है। सोशल मीडिया पर दिव्य हिमाचल की सांत्वना पर शक करते मदारी यह भी नहीं जानते कि जहां जीवन का सबसे बड़ा घाटा हो, वहां हर तरह के तराजू टूट जाते हैं। हम आर्थिक मदद की अंजुरी भर कर भी, किसी हानि या दर्द का हिसाब नहीं कर सकते। जिस सौहार्द से सहयोगी-साथी व सरकार इस पीड़ा का बीड़ा उठाकर, शोकग्रस्त परिवार का संबल बन रहे हैं, उसे वक्त का तराजू ही बताएगा कि मानवीय संवेदना का मूल्य किसी सिक्के की तरह खनकता नहीं। अपनी खुद्दारी से पलटकर सुनील ने दौलत नहीं पाई, लेकिन दिल में जो बसाया वह एक बड़ा संसार है। इसलिए स्मृति के आईने में प्रतिबिंबित होकर सुनील रोजाना मुखातिब होता है और जिम्मेदारी की अपनी परछाई को लंबा कर जाता है। इस विरासत में अपनेपन की खोज, जब सामने तड़पती पत्नी-बेटी को देखती है, तो पूछने के लिए सिर्फ यही बचा है, तुम कहां चले गए सुनील। वह आखिरी व्हाट्सऐप संदेश में अटकी समय की सूई और हर दिन दोपहर डेढ़ बजे की फोन काल वहीं रुकी है, जहां से तुम अचानक आगे निकल गए।

-निर्मल असो