खोखली जड़ों पर कांगड़ा चाय

जिस चाय को हिमाचल सरकार उबारने की जमीन तलाश रही है, वास्तव में इसे राज्य के ब्रांड की तरह पेश करने की जरूरत है। कांगड़ा चाय के पिछड़ने के कई कारण हो सकते हैं, लेकिन घाटे की पैदावार में मेहनत हार रही है। चाय बागीचों को बरकरार रखने की लागत, बिक्री के समाधानों से कहीं अधिक इस उलझन में फंसी है कि किस तरह इन्हें उखाड़कर अन्य व्यवसायों से जोड़ा जाए या झाडि़यों के नीचे से जमीन का ही सौदा हो जाए और होता भी यही रहा है कि किसी न किसी बहाने राजनीतिक अनुमतियों ने चाय की जड़ें खोखली कर दीं। बेशक कांगड़ा चाय अपने जायके और गहरे रंग की वजह से बेशकीमती हो जाती है, लेकिन बागीचों में ठूंठ बन चुकी झाडि़यों के कारण निरंतर घट रहा उत्पादन सबसे बड़ी चिंता है। चाय उत्पादन के लिए निर्धारित जमीन का आधे से ज्यादा हिस्सा अगर बेकार हो चुका है, तो हिमाचल की इस क्षमता का दोहन कैसे होगा। प्रसन्नता का विषय यह कि चीन का एक एनजीओ कांगड़ा चाय पर लट्टू है और उसकी मांग की आपूर्ति से इसे जीवनदान मिल सकता है। कृषि एवं जनजातीय मंत्री रामलाल मार्कंडेय ने कांगड़ा चाय का भविष्य चमकाने के लिए मांग तो खड़ी कर दी है, लेकिन दीर्घकालीन योजना से बागान और बागबान को संरक्षण देने की आवश्यकता है। चाय के बागीचों पर पर्यावरणीय व जलवायु परिवर्तन का प्रतिकूल असर तो दिखाई देता है, लेकिन बढ़ती श्रमिक लागत लघु उत्पादकों के लिए जबरदस्त घाटे का सबब बन रही है। पिछले कई वर्षों से उत्पादन का घटता दायरा किसी न किसी रूप में चाय उत्पादन की उदासीनता प्रकट कर रहा है, जबकि ग्रीन टी का बाजार बढ़ रहा है। चाय उत्पादन को प्रोत्साहित करने के लिए यह भी समझना जरूरी है कि इसकी देखरेख की विभागीय जिम्मेदारी क्या है। प्रदेश मुजारा कानून से मुक्त रहे चाय उत्पादक यूं तो बागान मालिक हैं, लेकिन विभागीय तौर पर चाय कभी उद्योग और कभी कृषि विभागों के दायरे में रही। अगर चाय उत्पादन का भविष्य संवारना है, तो विभागीय जिम्मेदारियां सामान्य बंटवारे के बजाय रणनीतिक बनानी होंगी। श्रीलंका व चीन जैसे देशों ने चाय को निर्यात का जरिया बनाते हुए, इसे जंगल के रूप में पौधारोपण की शक्ल दी है। एक साथ वन और चाय की खेती की अवधारणा अगर सशक्त होती है, तो हिमाचल जैसे पर्वतीय राज्यों को आर्थिकी का नया स्रोत मिलेगा। पूर्ववर्ती धूमल सरकार ने चाय की खेती के लिए चंबा व मंडी में अतिरिक्त भूमि की तलाश करनी शुरू की थी, लेकिन यह परियोजना केवल फाइलों में पसीना बहाती रह गई। दरअसल हिमाचल जैसे पर्वतीय राज्यों के लिए वन की परिभाषा में चाय, कॉफी तथा औषधीय उत्पादन के वैज्ञानिक प्रयोग करने होंगे। चीड़ के जंगलों से कहीं बेहतर होगा अगर इंटर क्रापिंग करते हुए चाय-कॉफी के साथ-साथ इमारती लकड़ी, फल तथा बहु-उद्देश्यीय पौधे उगाए जाएं। इससे पर्यावरण संरक्षण, मानवीय जरूरतें तथा वन आर्थिकी का विकास होगा। जाहिर है चाय की खेती को वन विभाग के अधीन लाते हुए इसके ऊपर अध्ययन व शोध की जिम्मेदारी भी सोलन विश्वविद्यालय को सौंपनी चाहिए। चाय जैसे उत्पाद अगर वनाच्छादित होंगे, तो स्थानीय जनता की भागीदारी तथा वन संरक्षण के मायने भी बदलेंगे। बहरहाल कृषि मंत्री ने चाय की चुस्की में सरकार का शहद घोल दिया है। आशाओं और संभावनाओं के मंतव्य में बाजार का रुख जोड़कर, रामलाल मार्कंडेय ने कांगड़ा चाय के सूखे पत्तों में लाली भरने का प्रयास किया है। कांगड़ा चाय के खरीददार अगर देश-विदेश में हैं, तो हमारी नीति व प्रयास क्यों बंजर होते बागानों के चश्मदीद बने हैं।

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