नदी को बहना होगा

मसला पानी के सही इस्तेमाल का है, तो समाज के हर तबके के दायित्व से भी यह प्रश्न जुड़ता है। पहाड़ से प्रार्थना करती मानवता के सामने जलवायु परिवर्तन की जटिलताएं रू-ब-रू हैं, इसलिए शिमला में चिंतन का दौर चला तो भविष्य का मंतव्य सामने आया। जल पुरुष राजेंद्र सिंह के सुझावों पर भला किसे आपत्ति होगी, लेकिन पर्वतीय अंचल की राष्ट्रीय प्राथमिकताएं ही जब कसूरवार होंगी तो संकल्पों की हिमाचली धुरी को पूरी तरह घुमाना असंभव है। हिमाचल के लिए पानी जीवन की बचत या राष्ट्रीय योगदान की कुर्बानी रहा है, फिर भी इन पन्नों की लिखावट अप्रासंगिक बना दी जाती है। यह दीगर है कि पहाड़ केवल नदी की संगत में खुद को अभिव्यक्त करता है या बर्फ की चादर के नीचे अपने होने का गुरूर समझता है। इसलिए पर्वतीय जीवन प्रकृति के साथ तालमेल बैठाने की परंपरा सरीखा रहा है, लेकिन मानवीय महत्त्वाकांक्षा और घटती सामुदायिकता के कारण कहीं संतुलन को चीर कर जो प्रगति हो रही है, उसकी व्यथा जल स्रोतों ने ओढ़ ली है। नदी क्यों रूठी, यह पहाड़ की निराशा है या पर्वत ने विकास का बारूद सूंघ लिया। क्या बड़े बांधों ने इसे चूस लिया या सरकारी योजनाओं का प्रारूप ही कातिल रहा। नदी अपने आसपास के क्षरण में या किसी विद्युत परियोजना की शरण में लुट गई और रह गया मैला आंचल। ब्यासकुंड का जोश जब मंडी के आसपास सूख कर नदी के अस्तित्व पर रोता है, तो हिमाचल से भागता पानी दूर कहीं बीबीएमबी के अधिकारों की व्याख्या कर देता है। हम नदी के अपराधी बनें, फिर भी बीबीएमबी ने हमारी अमानत को अपमानित किया। जहां नदी बह रही है, वहां हिमाचल का अधिकार नहीं और जहां सूख रही है, वहां जल संरक्षण की भी धार नहीं। कभी खातरियों में बूंदें एकत्रित करके मंडी-हमीरपुर के कुछ इलाके पानी का मूल्य बताते थे। बावडि़यों के हृदय से फूटती पतली सी जलधारा हमारे नसीब की संपत्ति थी, तो चंगर के किसी तालाब को बारिश के पानी से लबालब बनाकर समुदाय अपने अस्तित्व का साझापन बरकरार रखता था। सिंचाई का जो चक्र खड्ड से अपनी जरूरत की कूहल खींच लाता था, उसके निशान अब अतिक्रमण की खाल पहने हैं, तो सामुदायिक मेहनत से अर्जित जिस ऊर्जा से खेत तक जल पहुंचता था वहां सूखे के कारण खलिहान भिखारी बन गया। डिपो का राशन सस्ता हो गया, तो जमीन से लापरवाह किसान अब खड्ड-नदी को भी भूल गया। फिर भी विभाग सिंचाई की ऐसी परियोजनाएं बना लेता है, जहां पानी की क्षमता खुद शरमा जाती है या कंकरीट के बदन पर केवल बजट की मोटी तह चढ़ जाती है। पहले पानी के कारण समाज के रिश्ते सुरक्षित होते थे और फख्र के साथ जल वास्तव में देवता बन जाता था, लेकिन अब विकास के दायरे में हम भूल गए कि कभी अस्तित्व की निगरानी में हमारे साथ नदी बहती थी। बेशक हिमाचली अंदाज का पानी अभी मरा नहीं, लेकिन जिंदगी के तट पर सूखा जरूर पसर गया। यह शिमला की जरूरतों में अश्विनी खड्ड की दुर्दशा या सरकारी पाइप में नहाते पीलिया के वायरस के साथ हमारे नजदीक खड़ा है। बेशक हमारे वजूद से पानी का रिश्ता आकाश से बरसता है, फिर भी यह यकीन नहीं होता कि कब मानसून रूठ जाए या सर्दियों की फिजा में पहाड़ नग्न रह जाए। सेब की फसल ठंड को तरस जाए या संतरे के भविष्य से वर्षा रूठ जाए। कहने को तो हमें ही जल संरक्षण करना होगा, लेकिन पर्वत के प्रति देश का फर्ज क्यों मौसम को कंगाल कर रहा है। हिमाचल जैसे पहाड़ी राज्यों को जल राज्य  या पर्यावरण राज्य के तौर-तरीकों से सहेजना है, तो केंद्रीय योजनाओं का मसौदा भी बदलना होगा। भौगोलिक परिस्थितियों के बावजूद अगर पहाड़ का किसान-बागबान परेशानी से निकलने की कोशिश करेगा या पढ़ा-लिखा नौजवान अपनी डगर बदलने का प्रयास करेगा, तो यह रगड़ की तरह अपने परिवेश पर हावी होगा। निजी तौर पर वाटर हार्वेस्टिंग की व्यापक योजना से गुजर कर भी हिमाचल कुछ नहीं कर पाया, तो सामुदायिक परियोजनाओं के तहत हर गांव-कस्बे और शहर की वाटर हार्वेस्टिंग को केंद्र की मदद चाहिए। पहाड़ के पानी और जवानी को केंद्र ने यूं ही बहने दिया, तो अपने हिस्से की मेहनत के घाव कम नहीं होंगे। हिमाचल ने जल के बदले जो खोया, उसकी भरपाई ही नहीं हुई तो जिंदा रहने की कसौटी का कर्ज भी भारी होने लगा। देश को पर्वतीय राज्यों के तौर पर समझने के लिए, स्वतंत्र मंत्रालय बनाना होगा और जलाधिकारों के तहत पानी को कच्चे माल की तरह राज्य के राजस्व का सबसे बड़ा स्रोत बनाना होगा, वरना बहती नदी के किनारे पर वर्षों से हिमाचल प्यासा रहा है।