बीपीएल का टूटा पिंजरा

यहां सवाल गरीबी से मुक्त होने का नहीं, बल्कि गरीब बने रहने की मानसिकता से मुक्त होने का था, इसलिए हिमाचल की चार पंचायतों ने नैतिकता को अंगीकार करते हुए बीपीएल का पिंजरा तोड़ दिया। बीपीएल योजनाओं के लाभप्रद साम्राज्य से पूरे गांव का मुक्त होना नैतिकता की अनहोनी घटना ही मानी जाएगी, क्योंकि प्रदेश में एक ऐसा सशक्त वर्ग तैयार हो चुका है, जो बीपीएल का मुकुट पहनकर सुखद स्थिति में है या यूं कहें कि एक माफिया तंत्र गरीब की योजनाओं को चट कर रहा है। कांगड़ा की हार जलाड़ी तथा हमीरपुर की देई दा नौण, टिहरा व बल्ह बिहाल पंचायतों ने सर्वानुमति से ढोंग की सारी दीवारें तोड़कर खुद को आजाद कर लिया। करीब तीन सौ लोगों ने गरीबी के कवच से अपनी आत्मा को स्वतंत्र करके बता दिया कि देश में स्वच्छता के मायने इनसानी चरित्र से कैसे जुड़ते हैं। आत्मचिंतन की जिस धरा पर अब ये गांव खड़े हैं, वहां हम सुशासन की सतर्कता और नागरिक शुचिता का नया इतिहास जोड़ सकते हैं। यह प्रगतिशील हिमाचल का आईना भी है कि गांव-दर-गांव खुद को गरीबी के पैबंद से अलहदा करके प्रति व्यक्ति खुशहाली के सूचक एकत्रित कर पा रहे हैं। यह गांव की आर्थिकी और मनुष्य की तरक्की का पैमाना है, जिससे राष्ट्रीय नैतिकता का सांचा मजबूत होगा। इन चार पंचायतों के नक्शे कदम पर अगर हिमाचल की सियासी दरिद्रता दूर हो, तो चरित्र की सड़ांध में पलते मानवीय दस्तूर को भी बदला जा सकता है। आश्चर्य यह कि हर योजना और हर कानून का दुरुपयोग करके भारत में सामाजिक सहमति का एक ऐसा रुतबा तैयार हो रहा है, जो राजनीतिक कारणों से हर चुनाव की पहरेदारी है। इसीलिए सामाजिक समरसता में मतैक्य के बजाय लठैत चरित्र अग्रणी हो रहा है। यानी इनसान को जोत कर एक ऐसी सियासत बलशाली बन रही है, जो राष्ट्रीय संसाधनों का उपयोग अपने तंत्र के लिए करके समाज में असहाय पूंजी का बाजार खड़ा कर रही है। यही असहाय समाज चुनावी आंकड़ों का हिसाब है और इसलिए देश में सबसे अधिक अप्रासंगिक मध्यम वर्ग बन रहा है। हिमाचल की चार पंचायतों को इसलिए दिलेर माना जाएगा, क्योंकि यह फैसला गैर राजनीतिक और सामाजिक है। आज के दौर में कोई भी पंचायत प्रधान यह नहीं चाहेगा कि किसी तरह की बंदरबांट खत्म हो जाए या अचानक सारा समाज एक जैसा नजर आ जाए। सामाजिक खाइयों से वोट की शिनाख्त करने वाली राजनीति के लिए यह अनिवार्यता है कि सभी नागरिक कई भागों में बंटें, ताकि गरीबी उपहार की तरह परोसी जा सके। दूसरी ओर हिमाचल के उस नजरिए पर भी गौर करें, जो सुविधाभोगी होने के लिए अपने यथार्थ को गिरवी रख सकता है। यही प्रचलन पिछले कुछ सालों से इस कद्र हावी हो रहा है कि संपन्न परिवार भी बीपीएल की खुराक में जी रहे हैं। हैरानी यह कि जो प्रदेश साक्षरता व प्रति व्यक्ति आय में श्रेष्ठ राज्यों में एक है, कागजों में गरीब क्यों है। क्यों समृद्ध परिवार भी बीपीएल के जुगाड़ में चलकर सरकारी सुविधाओं के तलवे चाट रहे हैं। बीपीएल चयन प्रक्रिया की चाबी जितनी सख्ती से घूमेगी, उतनी ही ईमानदारी से सही मायने में आर्थिक रूप से कमजोर नजर आएंगे। जाहिर तौर पर बीपीएल परिवारों का उत्थान समग्रता से होना चाहिए, ताकि समयबद्ध तरीके से समाज ऐसे अभिशाप से मुक्त हो। चार पंचायतों ने सामाजिक कुनबे को अभिशाप से मुक्त करते हुए, भविष्य के कदमों में तरक्की के हौसले बढ़ाए हैं, तो प्रदेश को भी समाज के ऐसे आईनों को मजबूती प्रदान करनी होगी। इन पंचायतों के सामाजिक आचरण का मॉडल ही वास्तव में लोकतांत्रिक जागरूकता है। यही वह रास्ता है, जिस पर समाज बिना भेदभाव अग्रसर होगा। समाज की आर्थिक खाई का समाधान बेशक हो रहा है, लेकिन जहां जातीय संबोधन व तुर्रे अडि़यल हैं, उन्हें भी सामान्य सोहबत चाहिए। सुप्रीम कोर्ट के फैसले में आग ढूंढकर आंदोलन चलाए जा सकते हैं, लेकिन सामाजिक मिलन के अवसर पर अदालती अर्थ को खलनायक बनाने का खतरा भयानक है। कम से कम हिमाचल में पंचायती राज के कर्मठ सिपाही अगर कुछ पंचायतों को बीपीएल मुक्त कर पाए, तो यह कोशिश जातीय वैमनस्य को तोड़कर नई समरसता में जीने का अलख भी जगा सकती है। इन सभी पंचायतों को हिमाचल का साधुवाद।