मेघालय विधानसभा में हिंदी से तूफान

डा. कुलदीप चंद अग्निहोत्री

लेखक, वरिष्ठ स्तंभकार हैं

किसी को भी मेघालय विधानसभा में इन भाषाओं में बोलने का अधिकार क्यों नहीं मिलना चाहिए? यदि खासी या गारो मेघालय विधानसभा में नहीं बोली जाएंगी, तो क्या हिमाचल विधानसभा में बोली जाएंगी? प्रदेश के शिक्षा संस्थानों में मेघालय की विभिन्न जातियों की भाषाओं को उचित स्थान मिलेगा, तो निश्चय ही उनका विकास होगा। उनमें उत्कृष्ट साहित्य रचना होगी। यदि भाषाओं का कहीं प्रयोग ही नहीं होगा, तो उनकी उपयोगिता क्या रहेगी? दरअसल मेघालय में अंग्रेजी धीरे-धीरे वहां की सभी स्थानीय भाषाओं को खा रही है…

पिछले दिनों नवनिर्वाचित मेघालय विधानसभा का पहला अधिवेशन हुआ और उसमें वहां के राज्यपाल गंगा प्रसाद ने हिंदी में भाषण दे दिया। इसे लेकर वहां हंगामा बरपा गया। कांग्रेस के कुछ सदस्य तो वाकआउट कर गए। बाकियों ने वहीं रह कर विरोध किया। कांग्रेस का कहना था कि गंगा प्रसाद तो सुशिक्षित हैं, इसके बावजूद वे सदन में हिंदी बोल रहे हैं, यह तो एक प्रकार से उनकी हिमाकत की हद है। यानी यदि वे अनपढ़ होते तब सोनिया कांग्रेस को उनके हिंदी बोलने पर कोई आपत्ति नहीं होती। कोई आदमी पढ़ा-लिखा होकर भी मेघालय विधानसभा में हिंदी बोलता है, इससे ज्यादा हिमाकत क्या हो सकती है? दूसरी पार्टियों के सदस्य भी विधानसभा के अंदर किसी को हिंदी बोलते सुनकर हतप्रभ रह गए। भाव सभी का कुछ ऐसा था मानो राज्यपाल ने सदन के भीतर हिंदी बोल कर सदन की पवित्रता को भंग कर दिया हो, लेकिन राज्यपाल के हिंदी अभिभाषण पर सोनिया कांग्रेस व अन्य दलों के सदस्यों की प्रतिक्रिया तो और भी चौंकाने वाली थी। एक सदस्य ने कहा कि राज्यपाल के हिंदी भाषण से जो प्रदूषण फैलेगा, उसके प्रभाव में आकर कल कोई सदस्य सदन के भीतर अपनी मातृभाषा खासी में बोलना शुरू कर देगा, तब क्या होगा? दूसरों ने कहा कि मामला खासी तक ही सीमित रहेगा, इसका क्या भरोसा है? कोई गारो और पनार भाषा में भी बोल सकता है। इस सब के चलते तो विधानसभा में अराजकता ही फैल जाएगी।

कांग्रेस के कुछ सदस्यों ने गुस्से में आकर कहा कि राज्यपाल को उनकी हिंदी बोलने की धृष्टता का जवाब विधानसभा के अंदर खासी भाषा बोल कर देना ही होगा। दूसरे दिन कुछ सदस्य विरोधस्वरूप खासी भाषा में बोले भी। एक सदस्य ने तो अपनी मातृभाषा गारो में कुछ पंक्तियां बोल कर सनसनी फैला दी। सनसनी फैला दी वाला भाव वहां के अखबारों ने निकाला। मेघालय में मुख्य रूप से तीन भाषाएं बोली जाती हैं। खासी, गारो और जयंतिया। इन भाषाओं के बोलने वालों की भाषा में क्षेत्र के अनुसार थोड़ा बहुत अंतर आ जाता है। यह प्रायः दुनिया की हर भाषा के साथ होता है। पूर्वी बंगाल और पश्चिमी बंगाल की बंगला में कुछ अंतर होता है। पंजाब में ही दोआबा, माझा और मालवा की पंजाबी में अंतर आ जाता है। खासी और गारो के बोलने वालों की भाषा में भी यह अंतर आना कोई नई बात नहीं है। मेघालय की स्थापना के पीछे और अनेक कारण थे, लेकिन एक मुख्य कारण भाषा भी था। खासी, गारो और जयंतिया बोलने वालों को लगता था कि उन पर असमिया भाषा को लादा जा रहा है, जिसके कारण उनकी अपनी भाषाएं खासी, गारो इत्यादि पिछड़ती जा रही हैं। यहां तक कि असम विधानसभा में वर्तमान मेघालय क्षेत्र से चुन कर आने वाले सदस्यों को अपनी मातृभाषा खासी और गारो में बोलने की अनुमति नहीं थी। 1960 में असमिया भाषा को असम प्रांत की राजभाषा घोषित किया गया और इसके साथ ही खासी, जयंतिया पर्वतीय जिला और गारो पर्वतीय जिला के लोगों में असंतोष गहराने लगा था। उनको लगता था कि उनकी भाषाओं की अवहेलना हुई है।

इसी आंदोलन के परिणामस्वरूप इन दोनों जिलों को मिला कर 1969 में मेघालय की स्थापना की गई। 1972 को मेघालय को पूर्ण राज्य का दर्जा दे दिया गया, लेकिन मेघालय में जिन लोगों के हाथ सत्ता थी, उन्होंने भी वहां की भाषाओं को हाशिए पर रखने में कोई कोर कसर नहीं छोड़ी। प्रदेश विधानसभा में खासी, गारो या पनार जयंतिया भाषा में बोलने को प्रतिबंधित किया गया। विधानसभा में केवल अंग्रेजी भाषा में बोलने की अनुमति दी गई। बहाना वही ब्रिटिश काल के साम्राज्यवादी शासकों वाला था। प्रदेश में अनेक जातियों की अलग-अलग भाषा है। वे आपस में एक दूसरे की भाषा नहीं समझते। इसलिए उनके बोलने की अनुमति विधानसभा में कैसे दी जा सकती है? यदि यही तर्क था तो फिर भाषा के आधार पर अलग मेघालय बनाने की जरूरत ही क्या थी? अंग्रेजी में बोलने की अनुमति तो असम विधानसभा में भी थी। इसे क्या कहा जाए कि खासी और गारो आदि स्थानीय भाषाओं को विधानसभा में बोलने को प्रतिबंधित कर, खासी और बाद में पनार, गारो को भी संविधान की आठवीं अनुसूची में शामिल करने की मांग शुरू की गई।

इसी प्रकार खासी और गारो को साहित्य अकादमी की भाषा सूची में डालने की मांग शुरू हुई। ये भाषाएं इन सूचियों में शामिल होनी चाहिए। इसमें कोई मतभेद नहीं है, लेकिन मेघालय में इन भाषाओं को उचित स्थान क्यों नहीं मिलना चाहिए? किसी को भी मेघालय विधानसभा में इन भाषाओं में बोलने का अधिकार क्यों नहीं मिलना चाहिए? यदि खासी या गारो मेघालय विधानसभा में नहीं बोली जाएंगी, तो क्या हिमाचल विधानसभा में बोली जाएंगी? प्रदेश के शिक्षा संस्थानों में मेघालय की विभिन्न जातियों की भाषाओं को उचित स्थान मिलेगा, तो निश्चय ही उनका विकास होगा। उनमें उत्कृष्ट साहित्य रचना होगी। यदि भाषाओं का कहीं प्रयोग ही नहीं होगा, तो उनकी उपयोगिता क्या रहेगी? दरअसल मेघालय में अंग्रेजी धीरे-धीरे वहां की सभी स्थानीय भाषाओं को खा रही है। छोटी मोटी स्थानीय बोलियों की बात तो दूर, प्रदेश की बड़ी भाषाओं खासी, गारो और पनार ही खतरे में पड़ती जा रही हैं। मेघालय में आठवीं कक्षा से गारो, खासी या पनार इत्यादि भाषाओं का प्रयोग सख्ती से प्रतिबंधित कर दिया जाता है। एक विषय के तौर पर इनमें से किसी भाषा का अध्ययन किया जा सकता है, लेकिन अन्य विषयों में इन भाषाओं का प्रयोग नहीं किया जा सकता।

वैसे तो मेघालय में प्रथम कक्षा से लेकर सातवीं कक्षा तक भी माध्यम के रूप में खासी, गारो पनार या जयंतिया भाषाओं का प्रयोग करने वाले छात्रों की संख्या भी दिन-प्रतिदिन घटती जा रही है। प्रदेश विधानसभा में खासी और गारो इत्यादि भाषाओं के प्रयोग का विरोध करने वालों का कहना है कि यदि मेघालय विधानसभा में स्थानीय भाषाओं का प्रयोग शुरू हो गया, तो अराजकता फैल जाएगी। चाहिए तो यह था कि विधानसभा के अंदर खासी, गारो और पनार भाषा बोलने वालों की सुविधा को देखते हुए परस्पर अनुवाद की व्यवस्था की जाए। लेकिन ये भाषाएं बोलने वाले एक-दूसरे की भाषा नहीं समझते, इसका बहाना लेकर उस्तादों ने विधानसभा के अंदर इन भाषाओं में बोलना ही प्रतिबंधित कर दिया। राज्यपाल ने हिंदी में बोल कर मेघालय के अंदर ही वहां की अपनी भाषाओं की दयनीय स्थिति को लेकर एक सार्थक बहस चला दी है। इसके लिए निश्चय ही उनका धन्यवाद किया जाना चाहिए।

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