सरोज परमार का कलम से अटूट नाता

सरोज परमार किसी परिचय की मोहताज नहीं हैं। सरोज परमार के व्यक्तित्व एवं कृतित्व का विश्लेषण करना ठीक वैसे ही है, जैसे कोई आहिस्ता से नदी की लहरों का स्पर्श करते हुए गहरे समुद से रू-ब-रू हो पाए। सरोज परमार का व्यक्तित्व बहुआयामी है। इन्होंने निबंध एवं कविता के क्षेत्र में ख्याति अर्जित की है। व्यवसाय से अध्यापन में रत होने के कारण आलोचना के क्षेत्र में भी यशार्जन किया है। तमाम पारिवारिक जिम्मेदारियां निभाते हुए भी साहित्य और कलम से उनका अटूट नाता रहा। अन्याय के आगे सिर झुकाना और अंतरात्मा को गिरवी रखकर व्यवस्था से समझौता करना उनके स्वभाव में नहीं है, वह धारा के खिलाफ तैरने का हौसला रखती हैं। व्यवस्था के प्रति विरोध, रूढि़यों के प्रति प्रतिशोध, परिवार और समाज के रिश्तों पर कटाक्ष, स्त्री के दुख-दर्द, पर्यावरण छेड़छाड़ का विरोध, तनावों के साथ जुझारू रूप की झलक उनकी कविताओं में मिलती है। लेखिका ने सही अर्थों में समकालीन कविताओं में अपना वर्चस्व बनाया है। भारत-पाक सीमा पर स्थित रणबीर सिंह पुरा के निकटवर्ती गांव कंदयात्न (जम्मू) में 20 अक्तूबर, 1944 को पिता ठाकुर इंद्रबीर सिंह व माता तारा देवी के घर इनका जन्म हुआ। यह गोस्वामी गणेशदत्त महाविद्यालय बैजनाथ में 1967 से 2004 तक हिंदी विभाग में कार्यरत रहीं। साहित्यिक मंचों, गोष्ठियों, दूरदर्शन, आकाशवाणी के कार्यक्रमों में इन्होंने  भागीदारी की। घर, सुख और आदमी, समय से भिड़ने के लिए व मैं नदी होना चाहती हूं-इनके ये तीन काव्य संग्रह हैं जिनकी चर्चा राष्ट्रीय स्तर पर हुई। इन्होंने साहित्यिक निबंध व वैचारिक निबंध भी लिखे तथा समीक्षाओं में भी हाथ आजमाया। सरोज परमार के काव्य संग्रहों पर शोध भी हुआ। सन् 2003 में अंतरराष्ट्रीय दूरवर्ती शिक्षा एवं मुक्त अध्ययन केंद्र हिमाचल प्रदेश विश्वविद्यालय शिमला से शोधार्थी नीलम कुमारी ने एमफिल की उपाधि हेतु सरोज परमार का काव्य ‘संवेदना एवं शिल्प’ प्रस्तुत किया। वर्ष 2004-2005 में कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय से डा. युद्धवीर धवन (डी. लिट.) के निर्देशन में सीमा रानी ने एमफिल की उपाधि के लिए ‘सरोज परमार की काव्य यात्रा’ नामक शोध प्रबंध पेश किया। सरोज परमार का पूरा जीवन संघर्ष में बीता। संघर्ष से जो कुछ सीखा, उसे उन्होंने कविता के रूप में प्रकट किया है।

स्त्री विमर्श मजबूरी नहीं, बल्कि नितांत जरूरी है

हिमाचल का लेखक जगत अपने साहित्यिक परिवेश में जो जोड़ चुका है, उससे आगे निकलती जुस्तजू को समझने की कोशिश। समाज को बुनती इच्छाएं और टूटती सीमाओं के बंधन से मुक्त होती अभिव्यक्ति को समझने की कोशिश। जब शब्द दरगाह के मानिंद नजर आते हैं, तो किताब के दर्पण में लेखक से रू-ब-रू होने की इबादत की तरह, इस सीरीज को स्वीकार करें। इस क्रम में जब हमने सरोज परमार के कविता संग्रह ‘समय से भिड़ने के लिए’ की पड़ताल की तो साहित्य के कई पहलू सामने आए…

दिव्य हिमाचल के साथ

दिहि : तस्वीर जब आईने बदलती है, तो कविता में झांकने का मकसद मिलता है या जिंदगी से रू-ब-रू होना ही कविता है आपके लिए?

सरोज : जिंदगी से रू-ब-रू होना ही कविता का उत्स है, जिंदगी कई सोपानों पर उतरती-चढ़ती है। नए तजुर्बे जिंदगी की धार को पैना करते हैं। कवि जीवन संघर्ष को झेलते हुए अनेक समसामयिक चिंताओं से घिरकर सामाजिक दायित्वबोध से ओत-प्रोत होता है। कवि का अपना लोकमानस होता है। लोकरस से पगी कविता गंभीर चिंतनजनक होती है। गंध, रंग, मादकता, सरोकार, स्थानीयता वृहदलोक कवि का कर्म लोक है। सचा कवि मनुष्य की संघर्षधर्मिता, अपरिमित शक्ति का जानदार एहसास कराता है। विसंगतियों से एक योद्धा की भांति जूझता है, असंगत व्यवस्था को बदलना चाहता है। कवि मनीषी व प्रजापति है, जो भाव अयस्क को विवेक की भट्ठी में पकाकर कुंदन बनाता है। अतः कवि के पास दाने को भूसे से अलगाने का विवेक तथा रंगों की चारुता परखने की आंख होनी चाहिए।

दिहि : किसी पक्ष से हटकर परिमल होना या किसी स्मृति के खोल में खो जाना, आपके लिए कितना सहज अनुभव है?

सरोज : स्मृतियों के खोल में खोना किसी भी काव्य के लिए सहज है। स्मृतियों में बसा बालपन, कैशोर्य अथवा घटनाएं विसंगतियां जब-जब मस्तिष्क को झिंझोड़ती हैं, तब-तब उस स्मृति में डूब कर जो रचना होती है, वह उत्तम रचना होगी, क्योंकि उसमें सत्यानुभूति होगी। कवि तो अतीत, वर्तमान व भविष्य में भी झांक लेता है, पर कवि के मानसपटल पर व्यतीत हुए जीवन की घटनाओं की छाया रहती ही है। अतीत में खोकर ही प्रागैतिहासिक, ऐतिहासिक एवं वैयक्तिक साहित्य रचा जा सकता है। कविवर दिनकर ने महाभारत के खोल में घुसकर ही रश्मिरथी की रचना की थी। रामचरितमानस की रचना भी तुलसीदास ने प्रागैतिहासिक काल में डूबकर वर्तमान की विसंगतियों को इंगित करते हुए की।

दिहि : आपकी कविताओं में शब्द की ऋतुएं शृंगार बदलती हैं या अनुभव की खाट पर बिखरे पन्नों की आहट आपको किसी गहन सन्नाटे तक ले जाती है?

सरोज : कविता तो खट्टे-मीठे तिक्त अनुभवों से सृजित होती है। जितना अधिक परिस्थितियों, विसंगतियों से हम टकराएंगे, उतनी ही रचना में प्रभावोत्पादकता होगी। भोगा हुआ यथार्थ ही कविता के सरोकारों को पुष्ट करता है। अनुभवस्यूत दृष्टि बहुत कुछ कहने में समर्थ होती है। रत्नावली के आक्रोश के अनुभव ने ही तुलसी को राह दिखाई। समाज की विसंगतियों और धार्मिक वितंडावाद के अनुभवों ने मस्त फकीर को कबीर बना दिया। आपातकाल के दौर में भोगे यथार्थ ने अनेक कवि व लेखकों को जन्म दिया। मेरी कविता चाय बागान में जो कुछ लिखा गया है, उसे चाय बागान की एक शिला पर बैठ घंटों जो देखा, भोगा, परखा, वही कलम की नोक से उतरा है। अनुभव मन में सन्नाटा नहीं भरते, बल्कि रचनाओं को खाद-पानी देते हैं।

दिहि : आखिर नदी होना आपके लिए है क्या, क्योंकि कविता के जिस परिदृश्य की आप आंख खोलते हैं, वहां नीरवता के आंचल में यूं ही बहना कठिन है?

सरोज : नदी मेरे लिए प्रवाहमय जीवन है, उसके तट पर घंटों बैठकर साथ बहती रही बचपन में घाघरा नदी, किशोर अवस्था में गंगा और युवा होने पर बिनवा नदी मेरी संबल बनीं। नदी के प्रेम में कोई कृत्रिमता नहीं है। वह तलहटी, मैदान, पहाड़, शहर, गांव, कस्बे, खेत, पेड़, घास, कंटीली झाडि़यों-सबको रसप्लावित करती है। नदी का कार्य है स्वयं छीज कर शुद्ध करना। कूड़ा-कचरा, प्रदूषित जल, मल, अस्थियां सब, यहां तक कि लाशें भी हांफते हुए ढो लेती है। सतत प्रवाह कब रुका है नदी का। वह अपना रास्ता खुद चुनती है। मन आए तो वेगवती कई कुछ तहस-नहस करती हुई नया मार्ग ढूंढ लेती है। वास्तव में वह बहने के धर्म को निभाती है। नदी बहती चली जाती है तमस से उषस तक। नदी में पहाड़ की ऊंचाइयां बसी हैं, फिर भी जमीन नहीं छोड़ती। बांधें तो एक सीमा तक ही बंधती है, क्रोधित होने पर दौड़ती, भागती, चरागाहों को फलांगती, अंगड़ाई लेती, नगरों, गांवों, जंगलों, तलहटियों को पछाड़ते, बहुत कुछ समेटते हुए अपनी राह चली जाती है।

दिहि : जीवन से कितने भिन्न हो सकते हैं किसी रचना के अर्थ या मुट्ठी में अपनी जिद को समेटने की कला में छिप जाती है कविता?

सरोज : रचनाएं जिन परिस्थितियों, मनःस्थितियों में लिखी जाती हैं, समीक्षक रचनाओं को अपने आईने में झांकेंगे व शब्दों में अभिव्यक्त करेंगे। पाठक रचनाओं के अपने-अपने अर्थ निकालेंगे। महाकाव्य रामचरित मानस व महाभारत के अभी तक शतशः अर्थ हो चुके हैं। बिहारी सतसई के दोहों की कितनी हो टीकाएं हो चुकी हैं। मेरी भवबाधा हरो…स्याम दुति होय, दोहे के चिकित्सीय दृष्टि से भी अर्थ निकाले गए हैं। इस दोहे का अर्थ एक अलग ही जीवन दृष्टि देता है। नागार्जुन, केदारनाथ सिंह, के सच्चिदानंद की कविताओं के अर्थ विभिन्न दृष्टिकोणों से किए जा रहे हैं। दुष्यंत, धूमिल को जितना पढ़ा, उतना पाया। कवींद्र रवींद्रनाथ की कविताएं अध्यात्म की बुलंदियों को छूती हैं। वहां उनकी संवेदना उतनी ही तीव्रता के साथ अपने देशकाल के साथ जुड़ती है। कोई साहित्यिक कृति भले ही ऐतिहासिक घटना को केंद्र में रखकर लिखी गई हो, पर कहीं न कहीं इतिहास के उस कालखंड की गूंज किसी न किसी रूप में अवश्य सुनाई देने लगती है। इस युग की सबसे बड़ी विडंबना यह रही है कि इस युग में सबसे अधिक विश्वशांति की रट लगाई गई और साथ ही नरसंहार भी अत्यधिक हुआ है।

दिहि : साहित्य के लघु अभिप्राय या निजता के निकट खड़े रहने की वजह से कविता अपने ही भीगे आंचल की गुडि़या बन चुकी है या सामाजिक दायरों से बाहर आंदोलन का मैदान खड़ा करने की कुव्वत कमजोर पड़ गई?

सरोज : यह सत्य है कि निजता से आवेष्टित बहुत-सी कविताएं लिखी जा रही हैं, पर वे समय की सान पर टिक नहीं पातीं। कविता को लेकर बहुत से साहित्यिक आंदोलन हुए, छायावाद, रहस्यवाद, प्रगतिवाद, प्रयोगवाद से आगे बढ़कर कविता उत्तर आधुनिकतावाद का आंचल पकड़कर आगे बढ़ रही है। विमर्शों के नाम पर दलित विमर्श, वृद्ध विमर्श, बाल विमर्श, नारी विमर्श, ज्ञान विमर्श, विज्ञान विमर्श जैसे बीटनिकवादी कविता, बाजारवादी कविता जैसे आंदोलनों से कविता गुजरी है। ‘सारिका’ के संपादक कमलेश्वर ने ‘अय्याश प्रेतों का विद्रोह’ लेख में कुछ कहानियों में यौन प्रसंगों का उल्लेख किया। तभी धर्मवीर भारती ने सभी तरह के साहित्यिक आंदोलनों पर प्रहार करते हुए ‘चिकनी सतहें बहते आंदोलन’ लेख लिखकर इसका प्रतिरोध किया। यह सही है कि कविता के प्रचार-प्रसार के लिए बहुत से आंदोलन समय-समय पर होते रहे हैं, पर शीघ्र ही उनका गुब्बारा फूट जाता है। कविताओं में संवेदनशीलता के साथ-साथ सरोकारों का होना आवश्यक है, अन्यथा कविता समाज से कट जाएगी।

दिहि : लहर की कविता में समुद्र के भीतर का संताप तो समझ में आता है, लेकिन घिसटते-तड़पते वजूद का संकट, वक्त के माप में फिसड्डी होने का खौफ, लेकिन चिल्लाने की वजह अब मंच पर पसरने की कोशिश हो चली है?

सरोज : आपका प्रश्न मेरी ‘वे’ कविता को लेकर है। निश्चित ही नारी अस्मिता, संकट में है। घिसटते, लिथड़ते, तड़पते, पिटते हुए भी औरत कहीं पहुंचने की चिंता में रत है। स्वयं को मानवी सिद्ध करने के प्रयास में है। पुरुष का नजरिया प्रायः देह केंद्रित रहा है। महानगरों में घर और बाहर कठिन परिस्थितियों में जूझती स्त्रियों के साथ कैसे छल-प्रपंच हो रहे हैं। कामकाजी स्त्रियां लोकल ट्रेन या बस में बित्ता भर सीट के लिए कचकच करती थकी-हारी घर पहुंच पब्लिक टैप से पानी भर पतीलियों, थालियों, कूकरों से लड़ते-भिड़ते देर रात तक खटती हैं। पति की मार खाकर सोई औरत सुबह बेआवाज उठकर अंगीठी जलाकर खटर-पटर में व्यस्त हो काम पर निकल लेती है। गांव, कस्बों की औरतें दिन-रात खटते हुए ताने सहते हुए गलियों की बौछारों के बीच अपना मार्ग तलाश रही हैं। उच्च शिक्षिता स्वावलंबी औरतें भी कभी जाति की गरिमा, सामाजिक मान-सम्मान और पारिवारिक गौरव के नाम पर स्त्रियां चुप रहकर अन्याय सह लेती हैं। अपने अधिकारों की लड़ाई छोड़कर समझौता कर घुटन भरी जिंदगी जीती हैं। स्त्री का संपूर्ण जीवन पुरुषवादी धारणा द्वारा निर्धारित है। मिथ्या अवधारणाओं को तोड़ आज की स्त्री अपने अधिकारों के लिए न केवल बोलती है, बल्कि लिखती है। न्याय की गुहार बोल्ड होकर लगाती है।

दिहि : कविता की आह और वाह के बीच, कवि होने का सबूत किसी कोमल धरातल की पपड़ी है या पेड़ पर उगे कांटे का संघर्षशील होना है?

सरोज : कविता की आह और वाह की परवाह किए बिना स्त्री अपनी राह खोज-खोज कर बना रही है। उसे सरोकारों से जुड़कर भी अपने साथ हुए अत्याचारों, व्यभिचारों की बात कहनी है। उसे बताना है कि औरत रबड़ की गुडि़या नहीं, जिसे जैसे चाहो मोड़ लो, तोड़ लो अथवा मैली होने पर कूड़ेदान में फेंक दो। वह संपूर्ण मानवी है। आधी दुनिया का हिस्सा है, उसकी इच्छाओं, जरूरतों, पहचान का सम्मान होना चाहिए। स्त्रियां एक असमान और असंतुलित संघर्ष झेल रही हैं। जब तक पलड़ा बराबर नहीं होगा, सब नीति नियम बेकार हैं। सारे साहित्य पर एक पुरुष मानसिकता हावी है। स्त्री रचनाकारों के लिए कोई एक्सपोजर नहीं है। आखिर ऐसी कोई संस्था क्यों सामने नहीं आती, जिस पर स्त्रियों का आधिपत्य हो।

दिहि : आधुनिक कविता में तराशा जा रहा सत्य निर्बाध है या इसकी भी कोई सीमा है। लेखन में मर्यादा को चिन्हित किया जा सकता है या शब्दों की चरागाह में छिपे घोंसले अब पूरी तरह टूट चुके हैं?

सरोज : सत्य तो सत्य है, कोई भी बाधा क्यों न आए, सत्य की आभा छिटकती रहती है। कविता का सत्य तो शाश्वत है। कवि अपनी परिस्थितियों से उपजता है। सामाजिक, आर्थिक एवं राजनीतिक घात-प्रतिघात सहते हुए कवि अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त करता है। कवि भोगा हुआ यथार्थ कहता है। उसका नजरिया भिन्न हो सकता है। साहित्यकार समाज के आईने में जो देखता है, वही कहता है। कवि साहित्यकारों ने वर्जनाओं को नकारा है। आज का कवि छल छिद्रों को खोज-खोज कर उघाड़ रहा है, तो कहां अमर्यादित है? कालगर्ल्ज या एचआईवी की समस्याओं से जूझती स्त्रियां यदि अपनी बात खुले शब्दों में कहती हैं तो मर्यादा कहां भंग हुई? कवि वाल्मीकि के कथनानुसार पूर्णगर्भा सीता को वन में त्यागना अमर्यादित नहीं था? यदि स्त्री कवियों ने पुरुष सत्ता को आईना दिखाया या दलित विमर्श के रचनाकारों ने पूंजीपतियों के अत्याचारों का पर्दाफाश किया तो अमर्यादित नहीं कहा जा सकता। आधुनिक कवि घोंसलों को तोड़ने में विश्वास नहीं रखता, अपितु कमियां गिनवाता है, जिससे व्यवस्था सुधर जाए। यदि गली-सड़ी रूढि़यों को इंगित करना मर्यादा भंग है तो होता रहे। कवि तो वह लिखेगा जो उसे नागवार गुजरेगा।

दिहि : बाजार में खड़े प्रकाशन की प्रशंसा का खरीददार ढूंढ पाना सीधा मूल्यांकन है या शब्दकक्ष के सुकून में खलल डालती आलोचना का सामीप्य हासिल करना ही सृजन अवरोध को तोड़कर आगे निकलना है?

सरोज : आज बाजार में बहुत से प्रकाशन संस्थान हैं, जिनकी अपनी विचारधारा, गुटबाजी, खेमेबाजी और अपने प्रचार-प्रसार तंत्र तथा समीक्षक हैं। धन-बल के आधार पर रचना की समीक्षा दूर-दूर तक पहुंचती है। साहित्यकार का गुब्बारा फुलाने के सारे हथकंडे उनके पास हैं। वास्तव में प्रकाशन संस्था भी वैश्वीकरण व बाजार की चपेट में है। कविता मेड टू आर्डर तो नहीं है। नारे बनवाए जा सकते हैं, परंतु कविता कभी उत्पाद नहीं बन सकती। भारी-भरकम शब्दों में उलझाकर समीक्षक कुछ समय के लिए रचनाकार को लुभाकर ऊंचाई तक ले जाता है, पर समय का कोड़ा क्रूर है। उसे वह अपने कशाघात से यथास्थिति तक पहुंचा देता है। विज्ञापन और बाजार की दुनिया में वस्तुओं का इतना अधिक महिमामंडन कर दिया है कि उत्पाद से ज्यादा व्यक्ति वायदे खरीद रहे हैं।

दिहि : समय की रेत पर फिसलती अभिव्यक्ति को सोशल मीडिया जिस तरह पनाह दे रहा है, उसे किस परिप्रेक्ष्य में देखती हैं?

सरोज : अभिव्यक्ति को जिस प्रकार सोशल मीडिया से जोड़ा जा रहा है, उसके विषय में यही कहा जा सकता है कि साहित्यिक अभिव्यंजना नई तकनीक से जुड़ गई है। प्रश्न उठता है कि साहित्य रचना में सोशल मीडिया की क्या भूमिका है। ब्लॉग्स या बाइट्स का इस मंच पर किस प्रकार उपयोग किया जा रहा है। प्रछन्न लांछन, अस्पष्ट आरोप, अपुष्ट तथा अतार्किक भोंडापन आज के साहित्यिक वातावरण को आच्छादित कर रहा है और इसे निर्भीक सत्य बनाने की पूरी कवायद चल रही है। संवेदना उथली और लठमार हो चली है। सनसनी और चटखारापन इसका मिजाज बनता जा रहा है। किसको गाली दी गई, किसको कुत्सित और नीच कहा गया, किसे साहित्य में कुछ नहीं आता, इसमें हमारी दिलचस्पी बढ़ती जा रही है। किसी पत्रिका में अमुक लेख या रचना अच्छी है, इसकी चर्चा लगभग बंद हो गई है।

दिहि : स्त्री विमर्श की नाव में अभिव्यक्ति की डोर से बंधे रहना क्या महिला साहित्यकारों की मजबूरी है या पहचान के पैमानों में इतना विषाद भरा है कि बात वहीं से मुखातिब और वहीं से पूरी होती है?

सरोज : स्त्री विमर्श का तात्पर्य है-पितृसत्तात्मक व्यवस्था का पुनरीक्षण। स्त्री विमर्श पितृसत्तात्मक व्यवस्था द्वारा हाशिए पर फेंकी गई स्त्री के सपनों को शब्द देता है। स्त्री अस्मिता की लड़ाई लड़ रही है। सारी वर्जनाओं और प्रतिबंधों से दूर स्त्री अपने अंतर्मन की लिखत को आंख खोल कर देख रही है, पढ़ रही है। स्वीकार भी कर रही है, वह बताना चाह रही है कि उसे आज तक गलत पढ़ा गया, समझा गया। स्त्री विमर्श का तात्पर्य है धर्म, समाज और राजनीति के तिकड़म को समझने की चतुराई। अपनी देह और मन वर्तमान और भविष्य को लेकर आक्रामक सजगता। आधी जमीन, आधा आमसान लेने की लड़ाई। यही है स्त्री विमर्श से संबंधित स्त्री लेखन। इसे आप मजबूरी कह रहे हैं, पर यह जरूरी है। पहचान पाने के लिए यदि पुरुष कवि लालायित रहता है तो निश्चित रूप से स्त्री कवि भी पहचान के संकट से गुजर कर अपनी उपस्थिति दर्ज करवा रही है। पहचान पाने के लिए संघर्ष करना पड़ता है।

दिहि : कोई एक लम्हा जो आपको कविता बना गया या जहां सारा अक्स कविता में समा गया?

सरोज : बाल्यकाल में उपन्यास व कहानियां पढ़ने की लत लगी। कविवर रवींद्रनाथ टैगोर, आचार्य चतुरसेन शास्त्री व शरतचंद्र, वृंदावन लाल वर्मा, शिवानी आदि का साहित्य पढ़ने में आनंद आता था। घर में धर्मयुग, साप्ताहिक हिंदोस्तान जैसी पत्रिकाओं का दखल था। इनकी कहानियां, उपन्यासांश, कविताएं बनकर छाप छोड़ने लगी थीं। जब भी विद्यालय व महाविद्यालय में कविता, कहानी प्रतियोगिता होती तो पुरस्कार प्राप्त करती। मां और पिता जी सदैव यही कहते कि अपनी लिखी रचना ही पढ़ा करो। बस कविता के बीज यहीं से पड़े। एक बार बीएसएम कालेज रुड़की (उत्तर प्रदेश) के डा. दाता राम शर्मा ने प्रसाद जी की कविता ‘बीती विभावरी जाग री, अंबर पनघट में डुबो रही, तारा घट उषा नागरी’ पढ़ाया व अर्थ किया, बस उस दिन से मुझे यही लगा जैसे यह कविता मेरे लिए लिखी गई। जिस दिन भी भोर में उठने में देरी होती, यह कविता कानों में गूंजने लगती। उठते ही पेड़-पौधे, बल्लरियां निहारने लगती,आकाश के पनघट में ताराघाट के डूबने का दृश्य कल्पित करती और कविता गा उठती।

-राकेश सूद

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