रली पूजन की घटती परंपरा

रली ने कहा आज के उपरांत जो भी कन्या चैत्र मास में शिव-पार्वती की पूजा करके उनका विवाह रचाएगी, वह मनचाहा वर पाएगी। ऐसा कहने के उपरांत वह कन्या नदी में कूद गई…

हिमाचल देवी-देवताओं की भूमि है यहां के प्रत्येक त्योहार किसी न किसी रूप से देवी- देवताओं से जुड़े हैं।  कहा जाता है कि रली पूजन में अविवाहित लड़किया शिव और पार्वती की पूजा कर उनकी मूर्तियों का विवाह रचाती हैं। यह पूजन चैत्र संक्रांति से शुरू हो जाता है और एक महीने तक जारी रहता है। इसकी एक किंवदंती प्रचलित है कि कांगड़ा जनपद के किसी गांव में एक ब्राह्मण ने अपनी नौजवान कन्या रली का विवाह उससे आयु में बहुत छोटे लड़के से कर दिया। कन्या ने इस संबंध में विरोध भी किया,लेकिन माता -पिता  के सामने उसकी एक न चली। अंततः उसे मजबूरन विवाह के लिए हां करनी पड़ी। उस समय रिश्ते माता -पिता  ही तय करते थे। कन्या रली का विवाह शंकर नामक लड़के के साथ हो गया। कन्या को घर से विदा कर दिया गया। परंपरानुसार उस कन्या का छोटा भाई जिसका नाम वस्तु था, उसे छोड़ने गया। रास्ते में एक नदी पड़ती थी। जब डोली उस नदी के पास पहुंची, तो रली ने कहारों से डोली रोकने को कहा और भाई को बुला कर कहा जो भाग्य में लिखा था वो ही हो गया। मैं किसी को इसके लिए दोष नहीं दूंगी। अतः मैं पूरी जिंदगी अपने से आयु में छोटे पति के साथ नहीं गुजार सकती हूं। रली ने कहा आज के उपरांत जो भी कन्या चैत्र मास में शिव-पार्वती की पूजा करके उनका विवाह रचाएगी, वह मनचाहा वर पाएगी। ऐसा कहने के उपरांत वह कन्या नदी में कूद गई। जब दूल्हे ने उसे नदी में कूदते देखा तो उसने भी छलांग लगा दी, दोनों नदी की तेज धारा में बह गए। तब से यह त्योहार प्रत्येक गांव में छोटी अविवाहित कन्याओं द्वारा मनाया जाता रहा है, लेकिन आज की स्थिति बदल चुकी है। अब रली पूजन परंपरा बहुत कम मात्रा में मौजूद है। आज शायद ऐसी परंपराओं को संजोकर रखने का किसी के पास समय ही नहीं है और न ही  कोई रुचि। यह जानकर हैरानी होती है कि आज कुछ कन्याएं रली पूजन से अनभिज्ञ हैं, उन्हें यह ज्ञात ही नहीं कि यह त्योहार क्यों मनाया जाता है। वे भी अपनी जगह सही हैं क्योंकि हम लोगों ने ही उन्हें अपनी परंपराओं से अवगत नहीं करवाया तो उन्हें कैसे ज्ञात होगा। आज के समय बच्चांेे को टीवी, इंटरनेट, मोबाइल से ही  फुरसत नहीं तो त्योहारों को कौन याद रखेगा और परंपराओं को कैसे संजोकर रखा जाएगा। एक समय था जब मार्च -अप्रैल महीने में कन्याएं रली की पूजा के लिए फूलों को सुबह-सुबह इकट्ठा करती थीं  और मधुर गीत गाती थीं। सोमवार के दिन मोरली को घर-घर ले जाया जाता और गीत आदि गाए जाते थे, लेकिन आज ऐसा कुछ भी देखने में नजर नहीं आता है। हम अपनी पंरपरा को भूल रहे हैं। अगर हम ही इनको संजोकर नहीं रखेंगे तो कोई बाहर से थोड़ी आएगा। हम लोगों को अपनी परंपराओं को सहेज कर रखना है, अन्यथा यह इतिहास बन कर रह जाएंगी। शायद आज के दौर के लिए ये पंक्तियां ही सही हैं, वक्त बदला हालात बदले, आने वाली पीढ़ी के ख्यालात बदले।

 -राजकुंवर, गढ़ जमूला, पालमपुर 

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