अढ़ाई दिन के मुख्यमंत्री

अंततः येदियुरप्पा को कर्नाटक के मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा देना पड़ा। भाजपा ने अपने पूरे घोड़े खोल लिए, लेकिन इस बार वक्त उसके पक्ष में नहीं था, नतीजतन बहुमत का जुगाड़ नहीं किया जा सका। येदियुरप्पा ने सदन में अपना ‘भावुक भाषण’ तो दिया और किसानों समेत कई मुद्दे भी उठाए, कर्नाटक के जनादेश की व्याख्या की, लेकिन विश्वास प्रस्ताव रखने के बजाय अपने इस्तीफे की घोषणा करनी पड़ी। अलबत्ता उन्होंने लोगों के बीच जाने, ऐसी राजनीति को बेनकाब करने और दोबारा वापस आने का दावा जरूर किया है। इस तरह येदियुरप्पा मात्र अढ़ाई दिन ही मुख्यमंत्री रहे। अब वैकल्पिक तौर पर कांग्रेस-जद (एस) को राज्यपाल ने सरकार बनाने का न्योता दिया है। इस चुनावोत्तर गठबंधन के मुख्यमंत्री एचडी कुमारस्वामी होंगे। वह 23 मई, बुधवार को शपथ ग्रहण करेंगे। इस तरह 38 विधायकों के नेता मुख्यमंत्री बन रहे हैं। क्या लोकतंत्र और संविधान की भाषा में इसे ही जनादेश माना जाए? कांग्रेस ने येदियुरप्पा की नाकामी को कर्नाटक की जनता और लोकतंत्र की जीत करार दिया है। कर्नाटक में अढ़ाई दिन के मुख्यमंत्री का पतन भाजपा के धनबल, सत्ताबल, नीतिबल और राज्यपाल के पक्षपात की पराजय माना जा सकता है, लेकिन जिस तरह सरकार बन रही है, कमोबेश वह जनादेश नहीं है, लिहाजा कर्नाटक की सत्ता में जो ‘नाटकीय घटनाक्रम’ हुआ है, वह जनमत कदापि नहीं है। बेशक राहुल गांधी समेत तमाम कांग्रेसी नेता और प्रवक्ता चीख-चीख कर ‘जनादेश’ की दुहाई देते रहें, लेकिन उन्हें भी एहसास है कि यह जनादेश नहीं, जुगाड़ है। दरअसल स्पष्ट जनादेश किसी भी पक्ष को नहीं मिला था, लिहाजा राज्यपाल ने सबसे बड़ी पार्टी के नेता येदियुरप्पा को मुख्यमंत्री पद की शपथ दिला दी। 1996 में लोकसभा में भाजपा पहली बार सबसे बड़े दल के तौर पर उभरी थी। तब के राष्ट्रपति शंकर दयाल शर्मा ने भाजपा संसदीय दल के नेता अटल बिहारी वाजपेयी को प्रधानमंत्री पद की शपथ दिलाई थी। लेकिन बहुमत का समर्थन प्राप्त नहीं कर सके, लिहाजा 13 दिन बाद ही वाजपेयी को इस्तीफा देना पड़ा। उसके बाद सिर्फ 46 सांसदों वाले जनता दल के नेता देवेगौड़ा को प्रधानमंत्री बना दिया गया, क्योंकि कांग्रेस ने बाहर से समर्थन दिया था। क्या उसे भी जनादेश करार दिया जाएगा? 545 सदस्यों की लोकसभा में 46 सांसदों के नेता को प्रधानमंत्री बनाना क्या जनादेश माना जाएगा? और हकीकत तो यह है कि 11 महीने बाद ही कांग्रेस ने समर्थन वापस ले लिया। कर्नाटक का मौजूदा परिदृश्य भी 1996 सरीखा लगता है। आज देवेगौड़ा के बेटे कुमारस्वामी मुख्यमंत्री बन रहे हैं। कर्नाटक में कांग्रेस के समर्थन से ही कुमारस्वामी पहले भी मुख्यमंत्री बन चुके हैं, लेकिन कुछ ही महीनों के लिए…! बाद में कुमारस्वामी को भाजपा का पल्लू थामना पड़ा। शायद इस बार ऐसा न हो, क्योंकि सामने 2019 का ‘भयावह मिशन’ है-प्रधानमंत्री मोदी को हराना। शायद विपक्षी एकता के नाम पर कांग्रेस और जद-एस दोनों ही आपस में चिपके रहें। अलबत्ता वे एक ‘अनैतिक’, ‘अपवित्र’ और ‘मौकापरस्त’ गठबंधन के हिस्से हैं। बहरहाल कर्नाटक के संदर्भ में राज्यपाल ने क्या गलत निर्णय लिया। सुप्रीम कोर्ट में फिलहाल यह तय होना है कि येदियुरप्पा को मुख्यमंत्री पद की शपथ दिलाने में राज्यपाल की भूमिका क्या थी? कमोबेश अब सुप्रीम कोर्ट को ऐसे मानदंड भी परिभाषित कर देने चाहिए, जिनके आधार पर सरकारें बनें और मुख्यमंत्री पद की शपथ दिलाई जा सके। सबसे बड़ी पार्टी की परिभाषा और दर्जा भी तय होना चाहिए कि त्रिशंकु जनादेश की स्थिति में उसे ही सरकार बनाने का सर्वप्रथम अवसर दिया जाए या नहीं! बहरहाल कांग्रेस और जद-एस का गठबंधन भी ‘लोकतंत्र का अवसरवाद’ है। बेशक दोनों दलों के नेता ‘जनादेश की जीत’ के ढोल पीटते रहें, लेकिन अहम सवाल यह है कि यदि कर्नाटक की विधानसभा में 38 और 78 विधायकों का अलग-अलग दल से जीत कर आना जनादेश है, तो अकेली भाजपा के 104 विधायकों की जीत क्या है? इन नंबरों को हासिल करने वाली पार्टी तो स्पष्ट बहुमत से मात्र 7 विधायक ही दूर रही। किसी भी संदर्भ में परिभाषित कर लें, तो जनादेश के सर्वाधिक करीब भाजपा ही रही है। यह मानना ही पड़ेगा, बेशक सत्ता की परिभाषा कुछ और होती होगी! सत्ता और नंबरों के इसी खेल से यह आकलन करना बेवकूफी होगी कि प्रधानमंत्री मोदी को हराना संभव है और 2019 में विपक्ष मिलकर उन्हें सत्ता से खदेड़ देगा। बेशक ‘चुनाव चाणक्य’ के तौर पर भाजपा अध्यक्ष अमित शाह की शख्सियत पर कुछ सवाल जरूर खड़े किए जा सकते हैं। अभी विपक्ष का एकजुट होना और 2019 के आम चुनाव के प्रचार शुरू होने में काफी वक्त है। जब वह घटनाक्रम सामने होगा, तभी विश्लेषण करना उचित होगा।

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