आत्मोन्नति की धारणा

स्वामी विवेकानंद

गतांक से आगे… 

अधिकांश लोगों के विषय में यही दिखाई पड़ता है कि इस पौधे की बाढ़ आगे नहीं हो पाती। किसी संप्रदाय में जन्म लेना अच्छी बात है, पर संप्रदाय में ही मर जाना दुर्भाग्य है। अध्यात्मरूपी पौधे की बाढ़ में मदद पहुंचाने वाले उपासना प्रकारों की सीमा में जन्म लेना अच्छा है, किंतु इन उपासनाओं के घेरे में ही यदि उसकी मृत्यु हो जाए, तो यह स्पष्ट है कि उसका विकास नहीं हुआ। उस आत्मा की उन्नति नहीं हुई। इसलिए अगर कोई कहे कि प्रतीकों, ब्राह्य अनुष्ठानों तथा रूपों की सदैव ही आवश्यकता है, तो यह गलत है, लेकिन अगर वह कहे कि मन में अविकसित काल में आत्मोन्नति के लिए वे आवश्यक है, तो सत्य होगा, किंतु यह आत्मोन्नति कोई बौद्धिक विकास है, ऐसी भ्रमपूर्ण धारणा तुम्हें नहीं कर लेनी चाहिए। एक मनुष्य चाहे असाधारण बुद्धिमान हो, परंतु फिर भी संभव है कि आध्यात्मिक क्षेत्र में वह अभी निरा बच्चा ही हो। किसी भी क्षण तुम इसकी परीक्षा ले सकते हो। तुममें से प्रत्येक व्यक्ति ने सर्वव्यापी परमेश्वर में विश्वास करना सीखा है। वही सोचने की कोशिश करो। तुम्हें समुद्र की, आकाश की, विस्तृत हरियाली की या मरुभूमि की ही कल्पना आएगी। लेकिन ये सब स्थूल आकृतियां हैं और जब तक तुम अमूर्त की कल्पना अमूर्त रूप से ही नहीं कर सकते और जब तक निराकार, निराकार के रूप में ही तुम्हें अवगत नहीं होता, तब तक तुम्हें इन आकृतियों का, इन स्थूल मूर्तियों का आश्रय लेना ही होगा। ये आकृतियां चाहे मन के अंदर हों, चाहे मन के बाहर, इससे कुछ अधिक अंतर नहीं होता। हम सब जन्म से ही मूर्तिपूजक हैं और मूर्तिपूजा अच्छी है, क्योंकि यह मनुष्य के लिए अत्यंत स्वाभाविक है। इस उपासना से परे कौन जा सकता है? केवल वही जो सिद्ध पुरुष है, जो अवतारी पुरुष है। बाकी सब मूर्तिपूजक ही हैं। जब तक यह विश्व और उसमें मूर्त वस्तुएं हमारी आंखों के सामने प्रतीक है, जिसकी हम पूजा कर रहे हैं, जो कहता है कि मैं शरीर हूं, वह जन्म से ही मूर्तिपूजक है। हम हैं आत्मा, जिसका न कोई आकार है, न रूप, जो अनंत है और जिसमें जड़त्व का संपूर्ण अभाव है। अतएव, जो लोग अमूर्त की धारण तक नहीं कर सकते, जो शरीर या जड़ वस्तुओं का आश्रय लिए बिना अपने वास्तविक रूप का चिंतन नहीं कर सकते, वे मूर्तिपूजक ही हैं। फिर भी ऐसे लोग एक-दूसरे को तुम मूर्तिपूजक हो कहते हुए आपस में कैसे झगड़ते हैं।  दूसरे शब्दों में, प्रेत्यक कहता है कि मेरी मूर्ति सच्ची है, दूसरे की नहीं। इसलिए इन बचकानी कल्पनाओं को हमें त्याग देना चाहिए। हमें उन मनुष्यों की थोथी बकवास से परे चले जाना चाहिए, जो समझते हैं कि सारा धर्म शब्द जाल में ही समाया है, जिनकी समझ में धर्म केवल सिद्धांतों का एक समूह मात्र है, जिनके लिए धर्म केवल बुद्धि की सम्मति या विरोध है। जो धर्म का अर्थ केवल अपने पुरोहितों द्वारा बतलाए हुए कुछ शब्दों में विश्वास करना ही समझते हैं, जो धर्म को कोई ऐसी वस्तु समझते हैं, जो उनके बाप-दादाओं के विश्वास का विषय था, जो कुछ विशिष्ट कल्पनाओं और अंधविश्वासों को ही धर्म मानकर उनसे चिपके रहते हैं और वह भी केवल इसलिए कि यह अंधविश्वास उनके समस्त राष्ट्र का है।

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