आत्म पुराण

शंका-हे भगवन्! शास्त्रों में तो पाप कर्म का सर्वथा निषेध किया गया है। कहा गया है कि-‘अकर्त्तव्यं न कर्त्तव्यं प्राणैः कठगतैरपि। कर्त्तव्यमेव कर्त्तव्यं प्राणै कंठ गतैरपि।’ अर्थात‘जब तक कठ में प्राण शेष रहे, तब तक न करने योग्य पाप कर्म कभी न करना और पुण्य-कर्म को मरते-करते भी करना।’ इससे तो यही सिद्ध होता है कि चाहे, प्राण दे दिया जाए, पर पाप कर्म न किया जाए।

समाधान – हे जनक! किसी बलवान पुरुष से पाप-कर्म में प्रवर्त कराने पर मनुष्य अपने प्राण दे डाले, यह इन श्लोक का तात्पर्य नहीं है। किंतु जब तक इस मनुष्य के कंठ मंे प्राण स्थित हैं तब तक यह अपनी राजी से कोई पाप-कर्म न करे, यही इसका आशय है। पर यदि पाप के भय से भी कोई मनुष्य आत्महत्या करे तो उसे पाप का भागी होना पड़ता है, क्योंकि श्रुति में यह भी कहा गया है-

असुर्यानाम ते लोका अंधेन तमसा वृताः।

मृत्वामानभिर्गच्छति यं के चात्महनोजनाः।।

अर्थात- जो पुरुष अपनी आत्मा का हनन करते हैं, वे मर कर उन अंधकार पूर्ण तामसो लोकों मंे जाते हैं, जो अविवेकी, पापी मनुष्यों के लायक बताए गए हैं। इससे यह सिद्ध होता है कि प्रयोजक पुरुष, प्रयोज्य पुरुष, अनुमंता पुरुष इन तीनों पापों को पाप कर्म का दुख रूप फल अवश्य प्राप्त होता है। वह फल न्यूनाधिक भी हो सकता है। यहां जो दूसरे व्यक्ति को पाप कर्म से प्रवृर्त कराने वाले को प्रयोजक कहा गया है और जिससे पाप कर्म कराया गया वह प्रयोज्य है। तीसरा पुरुष जो उस पाप-कर्म को निवारण करने में समर्थ होकर भी उसे नहीं रोकता अनुमंता कहा जाता है। इन सभी को पाप का फल भोगना ही होता है। इसलिए पाप-कर्म न तो स्वयं करना चाहिए और न किसी से कराना चाहिए।

शंका – हे भगवन! पाप करने वाला पुरुष नरक में जाकर पाप का फल  अवश्य भोगता है, यह संभव नहीं जान पड़ता, क्यांेकि शास्त्रों में ही पाप की निवृत्ति के लिए प्रायश्चित का विधान मिलता है।

समाधान – हे दुष्ट जनक! जो पुरुष व्यामोह, भ्रम अथवा आपत्ति आ जाने पर किसी पाप कर्म को करता है, उसके लिए धर्म शास्त्रों ने प्रायश्चित का विधान किया है। यह उपाय भी तभी सफल होता है जब वह आगे फिर वैसा पाप न करने का संकल्प करे पर जो व्यक्ति फिर वैसा ही पाप करता है, उसको प्रायश्चित से कोई लाभ नहीं होता। जैसे हाथी स्नान करके फिर अपने मस्तक पर मिट्टी डाल लेता है और इससे उसका स्नान व्यर्थ हो जाता है, वैसा ही हाल इन बार-बार पाप करने वालों का होता है। शास्त्र मंे कहा है-‘नाऽमुक्त’ क्षीयते कर्म कल्प कोटि शतैरपि। अर्थात आत्मज्ञान और प्रायश्चित विधान से रहित मनुष्य के कर्म करोड़ों कल्पों तक भी बिना भोगे क्षय नहीं हो सकते। उसे उनका परिणाम कभी सहन करना ही पड़ता है। हे जनक! जो पुरुष निर्दोष प्राणियों का हनन करता है, उसे नरक के मार्ग में वे ही जीव तरह-तरह के शस्त्रों, दांतों, खुरों, सींगों से मारते काटते हैं, जिसकी हिंसा उसने को थी। जो पापी मनुष्य मांस भक्षण करते रहते थे, उसके मांस कुत्ता और गिद्ध जैसे जीव आकर खाने लगते हैं। जिससे उसे घोर दुख प्राप्त होता है। जिन मनुष्यों ने छल-कपट करके पराए धन को हर कर अपने परिवार का पालन किया था, उसके स्त्री, पुत्र, बांधवों को नरक में मांसाहारी जीव भक्षण करते हैं, जिसे देखकर उस पापी को घोर संताप होता है।  हे जनक! अधर्म द्वारा अपने कुटुंब का पोषण करने वाले लोगों को कुटुबिंयों को ये जीव चोंच में उठाकर आकाश में उड़ जाते हैं और वहां से उनको नीचे गिराते हैं, तो वे कभी अग्नि कुंड में, कभी कीड़े-मकौड़ों में परिपूर्ण जल कुंड में, कभी मल-के गड्ढों में पड़कर हाय करते हैं।

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