आत्म पुराण

इस प्रकार पापी जीव अपने कुटुंब सहित अथवा अकेले ही नरकों में ऐस भयंकर और पीड़ाकारक दंड सहन करते हैं, जिनका वर्णन भी करना कठिन है। जब विकराल स्वरूप वाले ऐसे पापी जीवों को दृढ़ पाशों में बांधकर नरक में ले जाते हैं तो वे उनके पापों का वर्णन करके उनकी ताड़ना करते हैं और हर तरह से अपमानित करते हैं। वे कहते हैं कि हे पापी जीव! अग्निहोत्र आदि कर्म करके स्वर्ग प्राप्त करने वाला और ज्ञान प्राप्त करके मोक्ष का अधिकारी बनने वाला यह मनुष्य शरीर अत्यंत दुर्लभ है। ऐसी दुर्लभ मानव देह, वह भी भरतखंड जैसी भूमि में मिलने पर भी तुमने कोई पुण्य कर्म नहीं किया। वरन अपने तथा परिवार वालों के पालन के लिए तरह-तरह के दुष्कर्म करके पाप की गठरी ही बांधी। स्त्री-पुत्र, भाई आदि का मिलना कोई कठिन नहीं है। वे तो तुमको मनुष्य तथा पशु-पक्षी की देह में भी कितनी भी संख्या में मिल जाएंगे, पर पुण्य कर्म तो इस मनुष्य को छोड़कर और किसी देह में प्राप्त नहीं हो सकेंगे और जिन स्त्री-पुत्र आदि के लिए तुमने इतना पाप कमाया वे ऐसे कृतघ्न हैं कि श्मशान भूमि में तुमको अकेला छोड़कर घर चल गए। ऐसे स्त्री-पुरुषों के लिए जाते हैं, जैसे घड़ा, वस्त्र आदि पदार्थ। पर यह आत्मादेव तो परिच्छिन्न है नहीं, किंतु यह सर्वत्र पूर्ण है। इसका एक शरीर छोड़कर दूसरे शरीर में जाना संभव नहीं जान पड़ता। समाधान- हे जनक! यह आनंद स्वरूप आत्मा वास्तव में सर्वत्र परिपूर्ण है तथा समस्त भेद से रहित है, इसलिए पाप-पुण्य का फल भोगने को परलोक जाना संभव नहीं है, पर जैसे परिपूर्ण आकाश घट रूप उपाधि के संबंध से गमनागमन को प्राप्त होता है, वैसे ही यह परिपूर्ण आत्मा भी बुद्धि रूप उपाधि के संबंध से लोकांतर में आती जाती रहती है।

शंका-हे भगवन! आपने जो कहा कि तृण जलौका की तरह शरीर में स्थित बुद्धि दूसरे शरीर को प्राप्त होती है, यह संभव नहीं, क्योंकि परिच्छिन्न मूर्त पदार्थ का, जो दूसरे देश के साथ क्रियाजन्य संबंधन होता है, वह देश से विभाग हुए बिना संभव नहीं है।

समाधान-हे जनक! जैसे तेज रूप चक्षु इंद्रिय अपने गोलक में स्थित होकर ही वृत्ति द्वारा सूर्य, चंद्रमा आदि दूसरे देश को प्राप्त होता है। यदि चक्षु इंद्रिय अपने गोलक रूप स्थान का परित्याग करके सूर्य आदि देशों को प्राप्त होता हो, तो यह पुरुष अंधा ही हो जाता है। उसी प्रकार मरण काल में पूर्व पुण्य-पाप कर्मों के प्रभाव से तथा परमेश्वर की इच्छा से यह बुद्धि भी अपने शरीर में स्थित रहती हुई ही वृत्ति द्वारा दूसरे भावी शरीर को प्राप्त होती है।

शंका-हे भगवन! जैसे मरण काल में वह बुद्धि वृत्ति निरादर किया। लोभ के वश होकर तू अन्य लोगों का धन हरण करता रहा, कामवेश होकर दूसरों की स्त्रियों को भ्रष्ट करता रहा। इस तरह के अनेक कठोर वचन कहते हुए वे यम किंकर उस पापी जीव को तरह-तरह के नरकों में ले जाते हैं, जहां वे अपने पाप-कर्मों के दंड स्वरूप भीषण यातनाएं सहन करते हैं।

समाधान-हे जनक! यद्यपि से सकाम पुरुष सुख की प्राप्ति और दुःख की निवृत्ति के लिए यज्ञादि कर्म करते हैं, पर उनको भी दुःख से छुटकारा नहीं मिलता। क्योंकि सकाम यज्ञादि करने वालों को साधनों की कुछ भी कमी रह होने से वैगुण्य दोष उत्पन्न हो जाता है, जिससे काम्य कर्म का कोई फल नहीं मिलता। वरन् पश्चाताप होने से एक प्रकार दुःख ही होता है और यदि उसका यज्ञ वैगुण्य दोष से रहित पूरा हो भी जाए, तो उसका फल विषय जन्य सुख ही होता है। पर विषय जन्य सुख, चाहे वह किसी स्तर का हो, सच्चा सुख नहीं हो सकता, उसके फल से मनुष्य स्वर्ग जाता है और भोग पूरा होने पर फिर मनुष्य लोक में आना पड़ता है। इसी प्रकार बार-बार आने-जाने से मनुष्य का कुछ भी आत्म-विकास नहीं हो पाता।

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