ईश्वर का पवित्र नाम

स्वामी विवेकानंद

गतांक से आगे…

हमें इन कल्पनाओं को त्याग देना चाहिए, अखिल मानव समाज को हमें एक ऐसा विशाल प्राणी समझना चाहिए, जो धीरे-धीरे प्रकाश की ओर बढ़ रहा है, अथवा एक ऐसा आश्वर्यजनक पौधा, जो स्वयं को उस अद्भुत सत्य के प्रति शनैः खोल रहा है, जिसे हम ईश्वर कहते हैं और इस ओर की पहली हलचल, पहली गति सदा बाह्य अनुष्ठानों तथा स्थूल द्वारा ही होती है। इन सभी बाह्य अनुष्ठानों के अंतराल में एक कल्पना मुख्यतः दिखेगी, जो दूसरी सब कल्पनाओं में श्रेष्ठ है।

वह है नाम की उपासना, तुममें से जितने लोगों ने पुराने ईसाई धर्म का अथवा अन्य धर्मों का अध्ययन किया है। उन्होंने शायद देखा होगा कि सभी धर्मों के अंतर्गत यह नामोपासना की कल्पना है। नाम अत्यंत पवित्र माना जाता है। ईश्वर का पवित्र नाम सब नामों से और सब पवित्र वस्तुओं से पवित्र है, ऐसा हम बाइबल में पढ़ते हैं। ईश्वर के नाम की पवित्रता अतुलनीय मानी गई है और ऐसा समझा गया है कि यह पवित्र नाम ही परमेश्वर है। और यह सत्य है, क्योंकि यह विश्व नाम और रूप के अतिरिक्त और है ही क्या? क्या शब्दों के बिना तुम सोच सकते हो? शब्द और विचार एक दूसरे से अलग नहीं किए जा सकते। तुम में से कोई उनको अलग कर सकता हो, तो प्रयत्न कर देखो। जब कभी तुम सोचते हो, तो शब्द और आकृतियों द्वारा ही है। एक के साथ दूसरा आता ही है, नाम रूप की याद दिलाता है और रूप से नाम का स्मरण होता है।

यह संपूर्ण विश्व मानो परमेश्वर का स्थूल प्रतीक है और उसके पीछे है, उसका महिमान्वित नाम। प्रत्येक शरीर है रूप और उसके पीछे रहता है उसका नाम। ज्यों ही तुम अपने किसी मित्र के नाम को याद करते हो, उसकी आकृति मन में लाते हो, उसका नाम तुम्हें याद आ जाता है। यह तो मनुष्य के सहज स्वभाव में ही है। दूसरे शब्दों में मनोविज्ञान की दृष्टि से, मनुष्य के चित्त में रूप के बोध के बिना नाम का बोध नहीं हो सकता और न नाम के बोध के बिना रूप का। वे दोनों अलग नहीं किए जा सकते। एक ही लहर के वे बाहरी और भीतरी अंग हैं, इसलिए नाम का इतना माहात्म्य है और दुनिया में वह सब जगह पूजा जाता है, चाहे जान-बूझकर, चाहे अनजाने में, मनुष्य के नाम की महिमा मालूम हो ही गई। हम यह भी देखते हैं कि भिन्न-भिन्न धर्मों के पवित्र पुरुषों की पूजा होती आई है। कोई कृष्ण की पूजा करता है, कोई ईसा मसीह की, कोई बुद्ध को पूजता है, कोई अन्य विभूतियों को। इसी तरह लोग संतों की पूजा करते आ रहे हैं। सैकड़ों संतों की पूजा संसार में होती रही है और उनकी पूजा क्यों न हो? प्रकाश के स्पंदन सर्वत्र विद्यमान हैं। उल्लू उसे अंधेरे में देखता है, इसी से स्पष्ट है कि वह वहां विद्यमान है, मनुष्य भले ही उसे न देख सके। मनुष्य को वह स्पंदन केवल दीपक, सूर्य, चंद्रमा इत्यादि में दिखाई देता है। परमेश्वर सर्वत्र विद्यमान है।             – क्रमशः

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