गीता रहस्य

स्वामी रामस्वरूप

विविध प्रकार के हवन करने वाले योगीजन सर्वव्यापक जगदीश्वर की तथा वेदों की  और सबके उत्पदाक  देव ईश्वर की महान स्तुति रूप सत्य वाणी वेद को जानकर परमेश्वर में मन तथा बुद्धि को समाधिस्थ करते हैं। इस मंत्र का भाव है कि साधक विद्वानों के संग से विद्या को प्राप्त करके , सर्वव्यापक, सृष्टि रचयिता, निराकार परमेश्वर में ही अपना मन और बृद्धि समाहित करें…

श्लोक 8/14 में श्रीकृष्ण महाराज अर्जुन से कह रहे हैं कि जो साधक  अन्य में चित्त न लगाकर नित्य निरंतर मेरे को स्मरण करता है उस नित्य मेरे में चित्त को लगाने वाले योगी को मैं सहज में ही प्राप्त हो जाता हूं। भाव- पिछले श्लोक 0/12 एवं 0/13 से संबंधित है। पिछले श्लोको में श्रीकृष्ण महाराज नें कहा कि योग धारणा में स्थित हुआ जो साधक अंत समय में ॐ इस अक्षर रूप ब्रह्म का उच्चारण करता है, वह परम गति को प्राप्त होता है। इसी संदर्भ में पुनः कहा कि जो साधक अष्टांग योग की छठे एवं सातवें अंग, धारणा एवं ध्यान को सिद्ध कर लेता है और इस अवस्था में उस साधक का चित्त( अनन्यचेता) किसी अन्य का चिंतन न करते हुए निरंतर मेरे ही नाम का स्मरण करता है, तो हे अर्जुन! वह ‘‘नित्ययुक्तस्य योगिन’’ कहलाने योग्य है अर्थात उस योगी ने अपना चित्त, बुद्धि एवं कर्म मेरे में ही  समाहित कर दिए हैं। इस स्थिति को प्राप्त योगी के लिए ‘अहम सुलभ’ हूं। पुनः यहां ‘अहम’ पद का अर्थ ईश्वर है। इस स्थिति का योगी असम्प्रज्ञात समाधि को प्राप्त कर चुका है। अन्यथा चारों वेद अनादि काल से यह समझा ही रहे हैं कि चित्त वृत्ति को अष्टांग योग की साधना द्वारा निरुद्ध किए बिना, चारों वेदों का अध्ययन द्वारा ज्ञान प्राप्त किए बिना, वेदों के विद्वानों से संपर्क स्थापित किए बिना, चित्त ईश्वर में लीन नहीं होता। उदाहरणार्थ यजुर्वेद मंत्र 5/14 में कहा ‘‘विहोत्राः विप्राः बृहतः विप्रस्थ विपकष्चतः सवितुः देवस्य मही परिष्टुतिः स्वाहा इत मनः युंजते उत धियः पुंजते’’ अर्थात- विविध प्रकार के हवन करने वाले योगीजन सर्वव्यापक जगदीश्वर की तथा वेदों की  और सबके उत्पदाक  देव ईश्वर की महान स्तुति रूप सत्य वाणी वेद को जानकर परमेश्वर में मन तथा बुद्धि को समाधिस्थ करते हैं। इस मंत्र का भाव है कि साधक विद्वानों के संग से विद्या को प्राप्त करके , सर्वव्यापक, सृष्टि रचयिता, निराकार परमेश्वर में ही अपना मन और बृद्धि समाहित करें। अतः हम श्रीकृष्ण महाराज का उपदेश ग्रहण करें। इस विषय में ऋग्वेद मंत्र 10/77/ 2 का भाव है कि मनुष्य अपने कल्याण के लिए समाधिस्थ योगियों काा संग करके अनादिकाल से चली आ रही वैदिक प्रेरणा को प्राप्त करंे। ऐसी प्रेरणा ही मनुष्य को भौतिक एवं आध्यात्मिक दोनों उन्नतियां प्राप्त कराती है और संसार में शरीरिक, मानसिक एवं पार्थिव दोषों का नाश करती है। फलस्वरूप ही प्राणी सुखमयी दीर्घायु प्राप्त करता है।

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