धरोहर इतिहास बोलेगा

मुख्यमंत्री जयराम ठाकुर की घोषणा पर अगर शीघ्र अमल होता है, तो हिमाचल का धरोहर इतिहास मुखातिब होगा। शिमला के बैंटनी कैसल में आयोजित ग्रामीण शिल्प मेले के दौरान मुख्यमंत्री ने इस आशय का विस्तृत स्वरूप पेश करते हुए, पर्यटन की महफिल में जोश भरा है। शुरुआत में बैंटनी कैसल खुद से रू-ब-रू करवाकर जब शिमला के ऐतिहासिक पलों की गवाही देगा, तो सैलानियों के बीच हिमाचल के अनुभव जीवंत हो उठेंगे। वर्षों बाद शिमला की अहमियत से सजी यह धरोहर इमारत, अब जनता के सामने अतीत के साक्ष्यों में रंग भर रही है, तो शिल्प मेले जैसे आयोजन की महक दूर तक पहुंचेगी। सरकार ने इमारत के जरिए हिमाचल की कला-संस्कृति की एक साथ कई खिड़कियां खोली हैं, तो पर्यटन के बदलते दौर में शिमला अपनी जुबान में बतियाने की मशक्कत कर रहा है। इससे पहले भी दृश्य एवं श्रव्य माध्यम से पर्यटन की लिखावट बदलने की घोषणाएं हुईं, लेकिन ये प्रयास केवल ढकोसला ही साबित हुए। हैरानी यह कि ज्वालामुखी में स्थापित म्यूजिकल फाउंटेन आज तक बोला ही नहीं और मकलोडगंज-मनाली के संगीत फव्वारों का आबंटित बजट कहां चला गया, कोई नहीं जानता। ऐसा नहीं है कि पर्यटन परियोजनाओं की कमी रही या कोशिशें नहीं हुईं, लेकिन योजनाबद्ध तरीके से हिमाचल में इसका दोहन नहीं हुआ। धरोहर के हिसाब से हिमाचल का इतिहास देश के सामने पर्वतीय शौर्य के कई अध्याय समेटे है, तो ब्रिटिश इंडिया का साक्षी रहा इतिहास शिमला के अलावा कई अन्य जगहों पर मौजूद है। ऐसी कई इमारतें, किले, मठ, मंदिर-गुरुद्वारे अपने महत्त्व, वास्तुकला व धरोहर मूल्यों के कारण ध्यान आकृष्ट करते हैं, लेकिन जानकारी व सुविधाओं के अभाव में पर्यटन इन्हें डेस्टीनेशन नहीं बना पाया। हमीरपुर जिला के सुजानपुर में ऐतिहासिक विरासत जिस तरह खुर्द-बुर्द हुई है, उस पर चिंता कौन करेगा। चंबा अपने हजार साल के इतिहास में कई जौहर समेटे है, लेकिन इसे आज तक धरोहर शहर का दर्जा तक नहीं मिला। गरली-परागपुर को मिला धरोहर गांव का तमगा केवल एक प्रतीक बनकर रह गया, जबकि यहां बिना कुछ किए ही फिल्म सिटी का प्रारूप  मौजूद है। अतीत में एक प्रयास मसरूर समारोह के रूप में सफल रहा, लेकिन इसमें आगे की कडि़यां नहीं जुड़ पाईं। कांगड़ा किला तथा धर्मशाला के शहीद स्मारक पर सूचना एवं जनसंपर्क विभाग ने ऐसे समारोहों की शुरुआत डेढ़ दशक पूर्व की और फिर खामोशी छा गई। इसी तरह पर्यटक सीजन में लोक कलाकारों की प्रस्तुतियां कभी हां या कभी न की तरह प्रशासन की मर्जी बन चुकी हैं। दरअसल कला, पर्यटन तथा मेले व लोक गीत-संगीत की दिशा में बहुत कुछ करके भी हिमाचल अपने प्रयास को शो-केस नहीं कर पाता है, तो इसकी सबसे बड़ी वजह विभिन्न विभागों में बंटा दायित्व है। हमारा मानना है कि पर्यटन की विविध खूबियों, मेलों-छिंजों, तरह-तरह के हिमाचली व्यंजनों तथा ग्रामीण शिल्प को अगर प्रभावशाली ढंग से प्रस्तुत करना है, तो मनोरंजन, व्यापार एवं मेला प्राधिकरण का गठन करना होगा। बेशक बैंटनी कैसल को लेकर सरकार के प्रयत्न सिरे चढ़ेंगे और शिमला के केंद्र बिंदु में यह स्थल कई जरूरतें पूरी करेगा, लेकिन धरोहर पर्यटन की दृष्टि से इतिहास के अन्य कई पन्ने सुजानपुर, चंबा, कांगड़ा, नाहन, नादौन, गरली-परागपुर तथा मसरूर जैसे स्थानों पर भी जुड़ने चाहिएं। प्रदेश के शिमला, चंबा व धर्मशाला संग्रहालयों के अलावा जहां-जहां धरोहर मूल्यों का संरक्षण सरकारी व गैर सरकारी तौर पर हो रहा है, उसे विज्ञापित करने की आवश्यकता है। मनाली, मंडी व धर्मशाला में निजी तौर पर बनी आर्ट गैरली के संचालकों को धरोहर पर्यटन के दायरे में पर्यटन पार्टनर के रूप में मान्यता मिलनी चाहिए। कांगड़ा के राष्ट्रीय फैशन तकनीक संस्थान ने ग्रामीण हस्तकलाओं के प्रति आरंभ में रुचि दिखाकर आशा बंधाई थी, लेकिन न हाट बाजार स्थापित हुए और न ही ग्रामीण उत्पादों को बाजार मिला। सरकार को सुजानपुर तथा चंबा में दृश्य एवं श्रव्य कार्यक्रमों का संचालन करना चाहिए, जबकि पर्यटक सीजन के दौरान लोक कलाकारों के नियमित आयोजन हर पर्यटक स्थान पर कराए जाएं।

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