भ्राता प्रेम की पराकाष्ठा :‘मोहणा’

कहानी

किसी भी क्षेत्र का इतिहास जानना हो तो वहां के लोकगीत सुन लिए जाएं तो वहां के बारे में काफी कुछ जाना जा सकता है। लोकगीतों में किसी क्षेत्र विशेष की ऐतिहासिक घटनाओं का विवरण क्रमबद्ध होकर श्रवण किया जा सकता है। ऐसा ही एक लोकप्रिय लोकगीत ‘मोहणा’ है, जिसे बिलासपुर जिला के जन-जन ने बड़ी श्रद्धा और तन्मयता के साथ श्रवण किया है।

पूरे प्रदेश में ‘मोहणा’ लोकगीत की विशिष्ट पहचान और आदर है। एक भाई का दूसरे भाई के लिए ऐसा त्याग कि अपनी जान देकर भाई को जीवन देना, ऐसे उदाहरण बिरले ही मिलते हैं। अपने भाई का गुनाह अपने सिर लेकर फांसी के फंदे को चूमना कोई बिरला ही भाई कर सकता है। मोहन की कुर्बानी को अज्ञात कवि ने अपने शब्दों में गूंथ कर एक गीत का आकार दिया। इसी गीत के कारण जहां ये समूची घटना चिरंजीव को उठी, वहीं मोहन भी अमर हो गया और छोड़ गया एक प्रेरणाप्रद व हृदयविदारक कहानी। अज्ञात कवि ने जिस गीत की रचना की, जरा उस पर गौर करें-‘तू नीं दिसदा ओ-मोहणा-तू नीं दिसदा!- मोया पला पला मेरा रोज खून सुकदा-खम्बे गडिते ओ मोहणा, खम्बे गडिते। बारा बजी गे ओ मोहणा-बारा बजी गे-। राजे री घडि़या ओ बारा बजिगे।-आया मरना ओ मोहणा आया मरना। तिजो भाइए री कितिएं आया मरना-।। खाईलै राटियां ओ मोहणा। खाईलै रोटियां।।-आपणी मावा रे हत्था री तू खाईलै ओ रोटियां।। किस बजाणी ओ मोहणा, किस बजाणी। तेरी बोरां आली बनसरी, ओ किस बजाणी।। तूं नीं दिसदा… ओ मोहणा-तूं नीं दिसदा….’। कहने का भाव यह कि ओ मोहन, तू दिखाई नहीं दे रहा, पल-पल मेरा खून जल रहा, खंबे गाड़ दिए गए हैं, तेरी जेबघड़ी ने बारह बजा दिए हैं, तुझे भाई के कारण मरना पड़ रहा है, तू खाना खा ले, मां के हाथ का बना खाना खा ले, अब तेरी बोरों (छेदों) वाली बांसुरी को कौन बजाएगा।। दोपहर के ठीक बारह बजे बेडीघाट पर जल्लादों  ने भोले मोहन को फांसी पर चढ़ा दिया था, जिसने भाई का जुर्म अपने सिर ले लिया था।

सुरेंद्र मिन्हास, गांव बध्यात, डा. बामटा, तहसील व जिला बिलासपुर (हि.प्र.)

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