राज्यों का राजस्व कम होने की आशंका

अश्विनी महाजन

लेखक, एसोसिएट प्रोफेसर, पीजीडीएवी कालेज, दिल्ली विश्वविद्यालय हैं

यूं तो जब भी नए वित्त आयोग का गठन होता है तो उसकी संदर्भ की शर्तों पर हमेशा से ही बहस चलती है। लेकिन इस बार यह बहस ज्यादा तीखी या यूं कहें कि कड़वी हो गई है। वित्त आयोग के संदर्भ में कई ऐसी शर्तें डाली गई हैं, जिनसे राज्य, खासतौर पर गैर भारतीय जनता पार्टी की सरकारों वाले राज्य खासे नाराज हैं। 15वें वित्त आयोग में यह संदर्भ डाला गया है कि क्या राजस्व घाटे संबंधी अनुदान के बारे में आयोग विचार करेगा या नहीं? विपक्षी दलों की सरकारों वाले राज्य इस संदर्भ को हटवाना चाहते हैं, क्योंकि उन्हें खतरा है कि ऐसा होने पर उनका अनुदान बंद हो सकता है…

केंद्र और राज्यों के बीच वित्तीय बंटवारे हेतु संवैधानिक व्यवस्था के नाते 15वें वित्त आयोग का गठन हो चुका है। अभी तक 14 वित्त आयोगों ने अपनी सिफारिशें दी हैं, जिनको कमोबेश पूरी तरह से लागू किया गया है। 15वें वित्त आयोग, जिसका गठन अभी किया गया है, में एनके सिंह को अध्यक्ष बनाया गया है। 9वें वित्त आयोग तक वित्त आयोग संविधान में अंकित विभिन्न बंटवारे योग्य करों के केंद्र और राज्यों के बीच बांटने और विभिन्न राज्यों के बीच भी बांटने हेतु सिफारिश देता रहा है। लेकिन 9वें वित्त आयोग की सिफारिशों में एक फार्मूले की सिफारिश हुई, जिसके अनुसार केंद्रीय कर राजस्व का एक निश्चित प्रतिशत राज्यों को दिया जाए। चूंकि एक तरफ  राज्यों को इस फार्मूले से फायदा हो रहा था, तो दूसरी तरफ  उन्हें यह भी लग रहा था कि कई बार केंद्रीय सरकार लोकलुभावन नीतियों के चलते ऐसे कई कर नहीं लगाती जिनको राज्यों के साथ साझा करना पड़ता है, जिसके कारण राज्यों को हानि होती है। इसलिए राज्यों ने इस फार्मूले को सहर्ष स्वीकार कर लिया। उसके बाद केंद्र-राज्यों के बीच करों का बंटवारा प्रतिशत आंकड़े के रूप में ही तय होने लगा।

14वें वित्त आयोग ने अचानक केंद्रीय करों में राज्यों के हिस्से को पूर्व में 32 प्रतिशत से बढ़ाकर एकदम 42 प्रतिशत कर दिया। गौरतलब है कि भारत में संघीय व्यवस्था है, जिसमें केंद्र सरकार, राज्य सरकारों और स्थानीय निकायों के माध्यम से शासन चलाया जाता है। यह सभी संविधान में प्रदत्त अधिकारों के अनुसार कर (टैक्स) लगाते हैं और अन्यान्य प्रकार से गैर-कर राजस्व भी प्राप्त करते हैं। संविधान के अनुसार कर इस प्रकार से लगाए जाते हैं, ताकि उनको एकत्र करने में सुविधा हो। राज्य सरकारों को जितना कर एकत्र करने का अधिकार है, उनकी जरूरतें उससे कहीं ज्यादा हैं, इसलिए संविधान में वित्त आयोग की व्यवस्था की गई है ताकि राज्य सरकारों को केंद्र सरकार के राजस्व में से भी कुछ हिस्सा मिले। हर 5 साल के बाद राष्ट्रपति द्वारा इस हेतु एक वित्त आयोग का गठन किया जाता है। 15वें वित्त आयोग का गठन भी उसी क्रम में किया गया है।

शर्तों के कारण तनाव

यूं तो जब भी नए वित्त आयोग का गठन होता है तो उसकी संदर्भ की शर्तों पर हमेशा से ही बहस चलती है। लेकिन इस बार यह बहस ज्यादा तीखी या यूं कहें कि कड़वी हो गई है। वित्त आयोग के संदर्भ में कई ऐसी शर्तें डाली गई हैं, जिनसे राज्य, खासतौर पर गैर भारतीय जनता पार्टी की सरकारों वाले राज्य खासे नाराज हैं। 15वें वित्त आयोग में यह संदर्भ डाला गया है कि क्या राजस्व घाटे संबंधी अनुदान के बारे में आयोग विचार करेगा या नहीं? विपक्षी दलों की सरकारों वाले राज्य इस संदर्भ को हटवाना चाहते हैं, क्योंकि उन्हें खतरा है कि ऐसा होने पर उनका राजस्व घाटे संबंधी अनुदान (ग्रांट) बंद हो सकता है।

वित्त आयोग को यह भी निर्देश दिया गया है कि पिछले वित्त आयोग द्वारा राज्यों को करों में ज्यादा हिस्सा मिलने के कारण केंद्र के राजकोष की स्थिति पर प्रभाव का अध्ययन करे और ‘न्यू इंडिया 2022’ समेत राष्ट्रीय विकास कार्यक्रम की जरूरत के साथ इसे जोड़कर देखा जाए। राज्यों को ऐसा लग रहा है कि इस शर्त के माध्यम से वित्त आयोग करों में राज्यों के हिस्से को कम कर सकता है। गौरतलब है कि पिछले वित्त आयोग ने करों में राज्यों के हिस्सों को 32 प्रतिशत से बढ़ाकर अचानक 42 प्रतिशत कर दिया था, जिसके चलते राज्यों की आमदनी तो बढ़ गई है, लेकिन केंद्र का बजट बिगड़ गया है। गौरतलब है कि जीएसटी लागू करने की कवायद में केंद्र सरकार ने राज्यों को यह वचन दे दिया था कि जीएसटी लागू होने से उनके करों में होने वाले नुकसान की न केवल पूरी-पूरी भरपाई करेगी, बल्कि उसमें 14 प्रतिशत ग्रोथ के साथ राजस्व की भरपाई होगी। इस वचन के कारण केंद्र सरकार का राजस्व बजट काफी बिगड़ गया है। वित्त आयोग को इस बाबत भी अध्ययन करने के लिए कहा गया है। विपक्षी दलों की सरकारों वाले राज्य चाहते हैं कि इस बाबत कोई संदर्भ वित्त आयोग में न रखा जाए। पिछले कई वित्त आयोगों में केंद्रीय राजस्व में राज्यों के हिस्से को विभिन्न राज्यों के बीच बांटने का फार्मूला निर्धारित करने हेतु 1971 की जनगणना के आंकड़े इस्तेमाल करने का निर्देश दिया जाता रहा है। यूं तो राज्यों के बीच बंटवारे को सही ढंग से करने के लिए नवीनतम जनगणना का ही उपयोग औचित्यपूर्ण है, लेकिन सरकार द्वारा बिना कोई कारण बताए 1971 की जनगणना के आंकड़ों का इस्तेमाल विशेषज्ञों को हमेशा अटपटा ही लगता रहा है। 14वें वित्त आयोग को इस संबंध में 2011 की जनगणना के आंकड़ों को आंशिक रूप से इस्तेमाल करने की अनुमति मिली थी। इस बार सरकार ने 15वें वित्त आयोग की संदर्भ की शर्तों में 2011 के जनगणना आंकड़ों को इस्तेमाल करने का निर्देश जारी किया है। दक्षिण के राज्यों ने इसके लिए अपनी शिकायत दर्ज की है कि इस नई शर्त के कारण उन्हें इसका नुकसान हुआ है और इसलिए इन सभी राज्यों ने एकत्रित होकर इसके खिलाफ  आवाज उठाना तय किया है। गौरतलब है कि भारत में वर्तमान में 21 राज्यों में भारतीय जनता पार्टी और उनके सहयोगी दलों की सरकारें हैं। दक्षिण के राज्यों का कहना है कि दक्षिण के राज्यों में एक में भी उनकी सरकार नहीं है, इसलिए अपने चहेते उत्तर के राज्यों, जहां उनकी सरकारें हैं, को फायदा पहुंचाने के लिए यह सारी कवायद की जा रही है। केंद्र सरकार की नीयत कुछ भी हो, जनसंख्या के अद्यतन आंकड़े इस्तेमाल करना ही उचित प्रतीत होता है। केंद्र और राज्यों के बीच धन के बंटवारे को काफी बड़े प्रमाण में जनसंख्या के आधार पर ही तय किया जाता है।

इसलिए यदि ऐतिहासिक तौर पर 1971 की जनगणना के आंकड़ों का संदर्भ वित्त आयोग को दिया जाता रहा है, तो वह औचित्यपूर्ण नहीं रहा है। यह समता के आधार पर भी सही नहीं है। आसानी से समझा जा सकता है कि ज्यादा जनसंख्या वाले राज्यों को ज्यादा धन की जरूरत होती है, ताकि लोगों के लिए बेहतर सेवाएं प्रदान की जा सकें और उन्हें गरीबी से बाहर लाया जा सके। नहीं भूलना चाहिए कि औसत रूप में ज्यादा और तेजी से बढ़ती हुई जनसंख्या वाले राज्यों में प्रति व्यक्ति आय दक्षिण के राज्यों से कहीं कम है। हालांकि उनको प्रति व्यक्ति आय कम होने पर बेहतर आवंटन होता है, लेकिन उनका वह फायदा पुरानी जनगणना के इस्तेमाल से काफी घट जाता है। देश में क्षेत्रगत असमानताओं को दूर करने के उद्देश्य के यह विरुद्ध है। माना जाता है कि केंद्र सरकार और राज्य सरकारों के बीच वित्तीय संबंध एक रस्साकशी के समान होते हैं, जिसमें राज्य हमेशा यह प्रयास करते हैं कि उनको केंद्र से ज्यादा से ज्यादा हिस्सा और अनुदान मिले, जबकि केंद्र सरकार की हमेशा यह मंशा रहती है कि राज्यों को उसे ज्यादा पैसा न देना पड़े। लेकिन यह रस्साकशी केवल केंद्र और राज्यों के बीच में ही नहीं होती, बल्कि विभिन्न राज्यों के बीच भी होती है और प्रत्येक राज्य यह चाहता है कि राज्यों को मिलने वाले कुल हिस्से में से उसका हिस्सा ज्यादा से ज्यादा हो। इस रस्साकशी में वित्त आयोग राष्ट्रपति द्वारा उसको दी गई संदर्भ शर्तों के मद्देनजर अपने विवेक का प्रयोग कर अपनी सिफारिशें देता है। देखना होगा कि एनके सिंह की अध्यक्षता में 15वां वित्त आयोग इस रस्साकशी में कैसे सामंजस्य बिठाता है।

ई-मेल : ashwanimahajan@rediiffmail.com

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