संसदीय प्रणाली : लोगों की सर्वोत्कृष्ट संस्था बनी संसद

भारतीय राजनीतिक व्यवस्था-संसद का गठन और स्थान प्रातिनिधिक संसदीय लोकतंत्र हमने प्रातिनिधिक  संसदीय लोकतंत्र की प्रणाली अपनाई है। तीन शब्द, अर्थात प्रतिनिधिक, संसदीय एवं लोकतंत्र हमारी राजनीतिक व्यवस्था के मूल तत्त्व हैं। लोकतंत्र का निहित अर्थ है आत्मनिर्णय का लोगों का अधिकार और मानव की तर्कसंगतता में आस्था। सच्चे लोकतंत्र की मूल बात यह है कि प्रत्येक व्यक्ति, चाहे उसकी जाति, धर्म, रंग अथवा लिंग कोई भी हो और शिक्षा का स्तर, आर्थिक अथवा व्यावसायिक पृष्ठभूमि कुछ भी हो, स्वशासन के और , जैसे वह उचित समझे वैसे, अपने कार्यों को करने के योग्य है। लोकतंत्र में लोग अपने स्वामी स्वयं होते हैं। भारत के संविधान में, इसकी उद्देशिका के महान शब्दों में कहा गया है कि हम भारत के लोग, दृढ़ संकल्प होकर इस संविधान को अंगीकृत करते हैं, जिससे निस्संदेह स्पष्ट हो जाता है कि भारतीय राजनीतिक व्यवस्था में प्रभुसत्ता केवल जनता में निहित है किंतु लोगों के हाथों में प्रभुसत्ता वैसे ही है जैसे भीषण पहाड़ी नदी के जल की शक्ति। उसे उपयोगी बनाने के लिए संयंत्र करना होता है। लोगों को किसी संस्था की आवश्यकता होती है, एक माध्यम की आवश्यकता होती है जिसके  द्वारा वे अपनी प्रभुसत्ता की अभिव्यक्ति कर सकें और उसका प्रयोग कर सकें।

हमारे  संविधान की योजना  और सार्वभौमिक वयस्क मताधिकार की इसकी व्यवस्था के अधीन लोग संघीय संसद के लिए  प्रतिनिधि चुनने हेतु मतदान करते समय अपनी प्रभुसत्ता का प्रयोग करते हैं। संसद लोगों की सर्वोत्कृष्ट संस्था बन जाती है जिसके माध्यम से लोगों की प्रभुसत्ता को अभिव्यक्ति मिलती है। प्रारंभ में प्राचीन यूनानी सिटी स्टेट्स अथवा नगर राज्यों में और भारत में वैदिक काल में लोग शासन संबंधी मामलों का फैसला करने के लिए स्वयं समवेत हुआ करते थे। इस प्रकार लोग राज्य के मामलों का फैसला करने के लिए प्रत्यक्ष रूप से अपनी शक्ति का प्रयोग करते थे और इस प्रकार की राजनीतिक व्यवस्था को प्रत्यक्ष लोकतंत्र कहा जा सकता है। परंतु धीरे-धीरे राजनीतिक इकाइयों के आकार एवं जनसंख्या में वृद्धि होने से और  अंततोगत्वा आधुनिक राष्ट्र- राज्यों के बनने से राज्य के मामलों पर विचार करने और सुचारू रूप से निर्णय पर पहुंचने के लिए लोगों के लिए स्थान पर समवेत होने का प्रबंध करना असंभव हो गया।

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