हिमाचली प्रतिभा की अस्मिता

रोशनी ढूंढनी हो तो एक दीया भी प्रकाश का पहरेदार होगा, वरना दिन के अंधेरों में चिराग चुराने की आदत है जमाने को। यह कैसे संभव है कि हिमाचल अपनी क्षमता को नजरअंदाज करने की लत से गुजरता रहे या प्रतिभा की पहचान में हमने दीवारें खड़ी कर रखी हैं। निजी उपलब्धियों के फानूस को रोशन समझें, तो हिमाचली रोशनदान से दूर तक देखने की क्षमता बढ़ेगी। यानी अपनी संभावनाओं को अंगीकार करने के लिए प्रदेश को बंद कमरों के दरवाजे खोलने पड़ेंगे। खेल संभावनाओं को ही देखें, तो हर गांव की छिंज में प्रतिभा सम्मान की मिट्टी बिछी है। न जाने कब से मेलों की विरासत में छिंजों का आयोजन सामाजिक सफलता का नमूना पेश करता है, लेकिन रोमांच के बिछौने पर कूद कर कोई बाहरी पहलवान हमारी मिट्टी छीन लेता है। करोड़ों की छिंजों में अगर हिमाचली पहलवान की अस्मिता को बचाने की कोशिश की जाए, तो न जाने कितने जगदीश कुमार हमारे गौरव का तिलक बन जाएंगे। हैरानी यह कि इस दिशा में खेल विभाग ने भी आंखें मूंद रखी हैं या यह सोचा ही नहीं कि हिमाचल में माटी के लाल की मेहनत को व्यर्थ गंवाएं। भले ही सामुदायिक सहयोग से छिंजों की वसीहत में कुश्तियां हो रही हैं, लेकिन ऐसे आयोजनों को खेल से जोड़ने की कोशिश तो हो सकती थी। खेलो इंडिया खेलो तक पहुंचने की तैयारी अगर राज्य को करनी है, तो एक बड़ी संभावना इन ग्रामीण अखाड़ों पर खड़ी है। इस दौरान मेलों के आकार में कुश्तियों का दायरा बढ़ा है और मनोरंजन के नाम पर पड़ोसी राज्यों के पहलवान मालामाल हो रहे हैं। कांगड़ा के गंगथ की कुश्ती इन दिनों खासी चर्चा में इसलिए है कि वहां माली जीतने वालों को ट्रैक्टर व कार तक उपहार स्वरूप मिलेंगे। ऐसे में सरकार अपने तौर पर अखाड़ों की ऊर्जा को कुश्ती का खेल बना सकती है। आश्चर्य तो यह कि बिलासपुर के चैहड़ में कुश्ती का माहौल बनाने के प्रयास भी नजरअंदाज किए गए, तो हिमाचली पहलवानों को मिट्टी बनाने में कोई कसर नहीं छोड़ी। सरकार को खेल विभाग का ढांचा ग्रामोन्मुख करते हुए सर्वप्रथम यह सुनिश्चित करना होगा कि उपलब्ध ढांचे के माध्यम से हीरे कैसे तराशे जाएं। कमोबेश हर जिला के ग्रामीण व ट्राइबल इलाकों की जिंदगी में कुछ स्वाभाविक लक्षण बच्चों को खेलों की ओर आकर्षित करते हैं। ऐसे में राज्य के खेल कैलेंडर को ग्रामीण खेलों में परिभाषित करते हुए भविष्य की नर्सरियां पैदा करनी होंगी। एथलेटिक्स, कबड्डी, वालीबाल, कुश्ती व तैराकी जैसे खेलों को जोड़ते हुए खेल स्कूल तथा होस्टल बनाने होंगे। सरकार ने पहले ही सामुदायिक सहूलियतों के लिए लोक भवन बनाने की घोषणा करके एक पहल की है और अगर इसी तर्ज पर हर स्तर के मेले के अखाड़ा स्थल को मिनी स्टेडियम बनाने का कदम उठाएं, तो ग्रामीण इलाकों में एक साथ कई खेल परिसर स्थापित हो जाएंगे। इसी तरह हर गांव-कस्बे में रामलीला या सामुदायिक मैदान बनाया जाए, तो स्थानीय कलाकारों को प्रतिभा दिखाने का अवसर मिलेगा। प्रदेश में दर्जनों सांस्कृतिक समारोह सियासी चाकरी तो करते हैं, लेकिन लोक कलाकार को मंच प्रदान करने में अक्षम हैं। पहलवानों की तरह ही बाहरी राज्यों के कलाकार मोटी रकम ले जाते हैं और स्थानीय कलाकार केवल सियासी सिफारिशों का पुलिंदा बनकर रह जाता है। हिमाचल की खेल व गीत-संगीत से जुड़ी प्रतिभाओं को ग्रामीण मेलों से भी जोड़ लें, तो काफी हद तक प्रश्रय मिलेगा। इसके लिए यह जरूरी हो जाता है कि हिमाचल में एक मेला प्राधिकरण का विधिवत गठन किया जाए।

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