अब ‘गांधी’ आर-पार!

आरएसएस की मानहानि के केस में कोर्ट ने कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी पर आरोप तय कर दिए हैं। धारा 499, 500 के तहत केस चलेगा। यदि आरोप साबित होते हैं, तो राहुल को दो साल जेल की सजा और जुर्माना दोनों ही झेलने पड़ सकते हैं। यदि ऐसी सजा होती है, तो राहुल गांधी छह साल के लिए चुनाव लड़ने को ‘अयोग्य’ हो जाएंगे। उनके राजनीतिक करियर पर सवाल उठाए जा सकते हैं। बहरहाल ये निष्कर्ष भविष्य के गर्भ में हैं, लेकिन अहम सवाल यह है कि राहुल गांधी अनाप-शनाप बयान क्यों देते रहे हैं? यदि उन्होंने महाराष्ट्र के भिवंडी की एक जनसभा में 6 मार्च, 2014 को संघ के लोगों को महात्मा गांधी का हत्यारा करार दिया है, तो उस संदर्भ में उनके पास न तो तथ्य हैं और न ही उन्होंने ऐसे तर्क दिए हैं, जिनके आधार पर उन पर आरोप तय नहीं किए जाते। आरोपों के संदर्भ में जज द्वारा पूछने पर भी राहुल गांधी ने जवाब दिया-‘मैं बेकसूर हूं। यह विचारधारा की लड़ाई है, मैं जरूर लड़ूंगा।’ संघ को गांधी का हत्यारा मानना कौन-सी वैचारिकता है? 70 साल से भी ज्यादा अंतराल के बाद गांधी की हत्या पर कुतर्क क्यों किए जाते हैं? क्या यह ऐसी सियासत का हिस्सा है, जो राहुल गांधी की राजनीति के माकूल है? संघ को कोसते रहने, नफरत बयां करने और उसे देशतोड़ू साबित करने की राजनीति से राहुल गांधी को क्या हासिल हुआ है? अतीत के विवादास्पद इतिहास को खंगालने के आज मायने क्या हैं? गौरतलब यह है कि गांधी की हत्या के दौर में देश के तत्कालीन गृहमंत्री सरदार पटेल ने प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू को रपट दी थी कि गांधी की हत्या में आरएसएस का कोई योगदान नहीं है। उसके बाद 1966 में जब इंदिरा गांधी देश की प्रधानमंत्री थीं, तब कपूर आयोग गठित किया गया,  ताकि गांधी के हत्यारों तक पहुंचा जा सके। आयोग ने तीन साल में रपट दी। निष्कर्ष यह था कि महात्मा गांधी की सुरक्षा में ढील बरती गई थी। आयोग ने सावरकर और उनके लोगों को हत्या के लिए जिम्मेदार माना। यह सभी जानते हैं कि नाथूराम गोड़से ने गांधी पर गोलियां चलाई थीं और उनसे गांधी की मृत्यु हो गई। इन दोनों निष्कर्षों का संघ से सीधे कोई लेना-देना नहीं है। कुछ किताबों और लेखों के संदर्भ देकर यह तथ्य स्थापित नहीं किया जा सकता कि संघ वालों ने गांधी को मारा था। राहुल गांधी आज देश की सबसे पुरानी कांग्रेस पार्टी के अध्यक्ष हैं और बीते 14 सालों से लोकसभा सांसद हैं। इसके बावजूद वह अनाप-शनाप बोलते रहे हैं। मसलन कोका-कोला कंपनी का मालिक अमरीका में पहले शिकंजी बेचता था। फोर्ड, मर्सिडीज बेंज और होंडा के मालिक पहले मैकेनिक हुआ करते थे। मैं किसानों के लिए आलू की फैक्टरी नहीं लगा सकता। कांग्रेस में कोई नियम-कानून नहीं चलता। मेकडॉनल्ड कंपनी का मालिक पहले ढाबा चलाया करता था। राजनीति आपकी शर्ट में, पैंट में, हर जगह है। ये सभी बयान राहुल गांधी ने सार्वजनिक तौर पर बोले हैं। क्या इनका कोई अर्थ था? विडंबना यह भी है कि राहुल गांधी के इर्द-गिर्द सलाहकार परिपक्व और अनुभवी नहीं हैं। उनका अध्ययन भी बेहद सीमित है, लिहाजा वे राहुल गांधी को सही लाइन पर बोलने की सलाह नहीं दे पाते और राहुल ऊल-जलूल बोलते रहे हैं। भिवंडी की ट्रायल कोर्ट में आने से पहले राहुल गांधी मई, 2015 में सुप्रीम कोर्ट भी गए थे और यह केस खारिज करने की याचिका लगाई थी, लेकिन सर्वोच्च न्यायालय ने भी साफ कहा-या तो आप संघ से माफी मांग लें, नहीं तो निचली कोर्ट में ट्रायल के सामने पेश हों। बहरहाल राहुल ने संघ से माफी मांगना उचित नहीं समझा, क्योंकि उससे उनकी पूरी राजनीति चित्त हो सकती थी। मानहानि का केस भिवंडी आरएसएस के सचिव राजेश कुंटे ने दायर किया था। अब केस ट्रायल कोर्ट में है और कोर्ट आरोप भी तय कर चुकी है। यानी कुछ ऐसा आपत्तिजनक जरूर है कि राहुल के खिलाफ मुकदमा चले। अगली तारीख 10 अगस्त है। यह केस राहुल गांधी और उनके सिपहसालारों को एक सबक दे सकता है कि यदि गांधी परिवार भी कुछ अनर्गल बयान देगा, तो उसे भी अदालत में खींचा जा सकता है और आम आदमी की तरह उन्हें भी ट्रायल झेलना पड़ेगा।

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