नागपुर में प्रणब मुखर्जी का संबोधन

डा. कुलदीप चंद अग्निहोत्री

लेखक, वरिष्ठ स्तंभकार हैं

मुखर्जी ने कहा कि लोकतंत्र में सभी राष्ट्रीय महत्त्व के प्रश्नों पर लोक संवाद ही समाधान का सर्वश्रेष्ठ तरीका है। किसी भी समाज में मत भिन्नता तो होगी ही। सहमत होना या असहमत होना मानव का स्वभाव है, लेकिन सब प्रश्नों पर संवाद रचना लोकतंत्र का प्राण है। संवाद रचना से ही हम देश की उलझी हुई समस्याओं का समाधान निकाल सकते हैं। दुर्भाग्य से मुखर्जी के नागपुर आने का विरोध करने वाले इसी संवाद रचना से बच रहे थे। प्रणब मुखर्जी ने कोई ऐसी नई बात नहीं कही, जो संघ पिछले नौ दशकों से न कहता आया हो…

पूर्व राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी नागपुर में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के एक कार्यक्रम में भाग लेने के लिए पहुंचे और वहां उन्होंने संघ के स्वयंसेवकों को संबोधित किया। यह घटना अभी भी भारतीय राजनीति में लहरें पैदा कर रही है। संघ के किसी कार्यक्रम में प्रणब मुखर्जी का जाना इतनी महत्त्वपूर्ण खबर कैसे बन गई? सात जून के कार्यक्रम में उन्होंने क्या कहा यह खबर बनती है, लेकिन खबरें तो उससे सप्ताह भर पहले ही बननी शुरू हो गई थीं, जब प्रणब मुखर्जी ने नागपुर के उस कार्यक्रम में आने की स्वीकृति ही दी थी। इसका एक ही कारण हो सकता है, प्रणब मुखर्जी जिंदगी भर कांग्रेसी रहे। कांग्रेस ने उन्हें राष्ट्रपति पद तक पहुंचाया, लेकिन अब मुखर्जी उस राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के कार्यक्रम में जा रहे थे, जिस संघ का सोनिया गांधी और उनके सुपुत्र राहुल गांधी विरोध करते हैं। ऐसा नहीं है कि संघ के किसी कार्यक्रम में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का कोई नेता पहले कभी गया ही नहीं। यहां तक कि महात्मा गांधी भी संघ के कार्यक्रमों में गए। कांग्रेस के कार्यकाल में ही भारत सरकार ने संघ के स्वयंसेवकों को दिल्ली की गणतंत्र दिवस की परेड में भाग लेने के लिए आमंत्रित किया था। बाबा साहब भीमराव रामजी अंबेडकर भी संघ के एक कार्यक्रम में आए थे और वहां के जात-पात विहीन दृश्य को देखकर प्रभावित हुए थे। इतना ही नहीं, जब वह महाराष्ट्र में भंडारा से चुनाव लड़े थे, तो उनके सहायकों में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रचारक दत्तोपंत ठेंगडी प्रमुख थे। जिन दिनों माधव सदाशिव गोलवलकर संघ के सरसंघचालक थे, उन्होंने नागपुर में ही संघ के विजयदशमी के सार्वजनिक कार्यक्रम में मुख्य अतिथि के तौर पर अंबेडकर के ही निकटस्थ साथी कार्वडे को बुलाया था।

संघ का सदा विरोध करने वाले जय प्रकाश नारायण, सोनिया गांधी शायद उनके बारे में नहीं जानती होंगी कि वह भी संघ के कार्यक्रमों में आए थे। उसके बाद ही उन्होंने कहा था कि यदि संघ सांप्रदायिक है, तो मैं भी सांप्रदायिक हूं। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ शुरू से ही भारतीय समाज में संवाद रचना का व्यास आसन रहा है। यह व्यास आसन ही किसी भी देश की ताकत होता है। संवाद रचना भारतीय लोकतंत्र की ताकत है । महात्मा गांधी,  सरदार पटेल इत्यादि के समय में कांग्रेस के भीतर संवाद रचना की यह भारतीय परंपरा विद्यमान थी। महात्मा गांधी तो इसके परम समर्थक थे। उन्होंने तो अपने समाचारपत्रों को भी इस संवाद रचना का माध्यम बनाया हुआ था। यही कारण था कि 1936 में जब बाबा साहब अंबेडकर ने लाहौर के जात-पात तोड़क मंडल के अधिवेशन में दिया जाने वाला अपना भाषण- जाति प्रथा का उन्मूलन, पुस्तिका के रूप में प्रकाशित किया, तो इसको लेकर गांधी और अंबेडकर के बीच लंबा संवाद ‘यंग इंडिया’ जो गांधी जी का अखबार था, के पन्नों पर चला था। लेकिन जब से भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस महज सोनिया-राहुल कांग्रेस तक सिमट गई है, तब से उसमें संवाद रचना समाप्त ही नहीं हो गई, बल्कि जो उसको प्रोत्साहित करता है उसको भी अच्छी नजर से नहीं देखा जाता। प्रणब मुखर्जी के नागपुर जाने को लेकर कांग्रेस के भीतर की उछलकूद इसी बीमार मानसिकता को इंगित करती है, लेकिन प्रणब मुखर्जीे ने नागपुर में स्वयं इस संवाद रचना की महत्ता और आवश्यकता पर जोर दिया।

मुखर्जी ने कहा कि लोकतंत्र में सभी राष्ट्रीय महत्त्व के प्रश्नों पर लोक संवाद ही समाधान का सर्वश्रेष्ठ तरीका है। किसी भी समाज में मत भिन्नता तो होगी ही। सहमत होना या असहमत होना मानव का स्वभाव है, लेकिन सब प्रश्नों पर संवाद रचना लोकतंत्र का प्राण है। संवाद रचना से ही हम देश की उलझी हुई समस्याओं का समाधान निकाल सकते हैं। दुर्भाग्य से मुखर्जी के नागपुर आने का विरोध करने वाले इसी संवाद रचना से बच रहे थे। प्रणब मुखर्जी ने नागपुर में संघ के स्वयंसेवकों से बात करते हुए कोई ऐसी नई बात नहीं कही, जो संघ पिछले नौ दशकों से न कहता आया हो। मोटे तौर पर मुखर्जी ने राष्ट्र, राष्ट्रीयता और देशभक्ति की व्याख्या की। ये तीनों अवधारणाएं राष्ट्रीय सवयंसेवक संघ के चिंतन की आधारभित्ती हैं। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ सदा इस बात पर जोर देता रहा है कि भारतीय संस्कृति सभी को समाहित करने वाली है। यह सामी संप्रदायों की तरह अपनी आस्था और विश्वास को छोड़कर शेष सभी का बहिष्कार करने वाली नहीं है। भारतीय संस्कृति और राष्ट्रीयता का आधार सभी के सुख और समृद्धि की कामना है। वह भौगोलिक सीमा से भी बाहर है। पश्चिम की नेशन स्टेट से भारत की राष्ट्रीयता का कुछ लेना-देना नहीं है। यूरोप के नेशन स्टेट के अस्तित्व को बचाए रखने के लिए एक दुश्मन की नितांत आवश्यकता है। यह नकारात्मक अवधारणा है, लेकिन भारत की राष्ट्रीयता की अवधारणा ‘सर्वे संतु सुखिना, सर्वे संतु निरामया’ पर आधारित है। यह सकारात्मक अवधारणा है। यही बात प्रणब मुखर्जी ने नागपुर में कही। संघ सदा से यह मानता आया है कि भाषा और आस्था की विविधता भारतीय समाज की ताकत है। भारत में अनेक भाषाएं हैं, लेकिन इन सभी भाषाओं में जो बोला जा रहा है, वह परस्पर विरोधी नहीं है। भारत में हजारों मजहब हैं। कोई वैष्णव है, तो कोई शाक्त। कोई शैव है, तो कोई लिंगायत, लेकिन ये परस्पर विरोधी नहीं बल्कि परस्पर पूरक हैं। वेद का उद्घोष है-एकम् सत् विप्रा बहुधा वदंति।

भारत की इसी आधारभूत एकता को प्रणब मुखर्जी ने इंगित किया। उन्होंने कहा आस्था, संस्कृति और भाषा की बहुलता भारत को शेष विश्व से विशेष बनाती है। यही बात अंबेडकर ने कही थी कि यद्यपि भारत की संस्कृति में अनेक अलग-अलग तत्त्व हो सकते हैं, लेकिन वे आपस में गुंफित होकर सांस्कृतिक एकता के लिहाज से भारत को दुनिया का विशेष देश बनाते हैं। मुखर्जी ने वहां एकत्रित संघ के स्वयंसेवकों का आह्वान किया कि आप सुशिक्षित हैं, अनुशासित हैं, जवान हैं। हमारी मातृभूमि आपको निहार रही है, शांति और सुख की कामना के लिए।

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