बिंदु और त्रिकोण में तात्त्विक अंतर नहीं

जीव त्रिकोण है तथा जाग्रत, स्वप्न और सुषुप्ति तीन अवस्थाएं हैं और वे तीन कोणों में अवस्थित हैं। बिंदु भाव में समस्त प्रपंचवासना वृक्ष की भांति सूक्ष्म रूप से बीज में लीन रहती है। जब वह बीज अपने अंतर्लीन जगत को व्यक्त करने की इच्छा से क्षुब्ध होता है, तब अपने रश्मिस्वरूप त्रिकोण को प्रकट करता है। यह बिंदु कारणबिंदु परावाक है तथा त्रिकोण कार्य रूप पश्यंती, मध्यमा और वैश्वरी विस्तार है…

-गतांक से आगे…

सर्वसिद्धिप्रदचक्र (त्रिकोण) की शक्तियां

तंत्रशास्त्र के समस्त ज्ञान को बिंदु तथा त्रिकोण के जरिए अभिव्यक्त किया जाता है। बिंदु और त्रिकोण में कोई तात्विक अंतर नहीं है। बिंदु कारण है और त्रिकोण कार्य है। यह शक्ति जो अंतर्मुख होकर शुद्ध अहंभाव को प्राप्त होकर शिवरूप से बिंदु में विश्राम लेती है, वही बहिर्मुख होकर जीवभाव से त्रिकोण में संसरण करती है।

इस प्रकार बिंदु शक्ति का अंतर्मुख रूप है, तो त्रिकोण उसी शक्ति का बहिर्मुख रूप है। कामकलाविलास ने कारण और कार्य की एकात्मकता का प्रतिपादन किया है :

आद्या कारणमन्या कार्यं त्वनयोर्यस्ततो हेतोः।

सैवेयम न हि भेदस्तादात्म्यं हेतु हेतुम्रतोः।।

जीव त्रिकोण है तथा जाग्रत, स्वप्न और सुषुप्ति तीन अवस्थाएं हैं और वे तीन कोणों में अवस्थित हैं।

बिंदु भाव में समस्त प्रपंचवासना वृक्ष की भांति सूक्ष्म रूप से बीज में लीन रहती है। जब वह बीज अपने अंतर्लीन जगत को व्यक्त करने की इच्छा से क्षुब्ध होता है, तब अपने रश्मिस्वरूप त्रिकोण को प्रकट करता है। यह बिंदु कारणबिंदु परावाक है तथा त्रिकोण कार्य रूप पश्यंती, मध्यमा और वैश्वरी विस्तार है।

इन्हीं को क्रमशः शांता, वामा, ज्येष्ठा और रौद्री तथा अंबिका, इच्छा, ज्ञान और क्रिया भी कहते हैं।

अंबिका और शांता शक्तियों का सामरस्य कामरूपपीठ है (इसे मन भी कहा जाता है)। इसमें जब बिंदु चैतन्य का प्रतिबिंब पड़ता है तो उसे स्वयंभू लिंग कहते हैं। इसी प्रकार त्रिकोण के अन्य दो कोण पूर्णगिरिपीठ और जालंधरपीठ नाम से प्रसिद्ध हैं। इनमें प्रतिफलित होने वाला चैतन्य इतरलिंग तथा बाणलिंग है। इन्हीं के दूसरे नाम बुद्धि और अहंकार हैं। त्रिकोण का मध्य बिंदु उड्डीयानपीठ है, जो चित्तस्वरूप है, इसमें जो ज्योति प्रतिबिंबित है, उसका नाम परलिंग है। अपने अधिदेवता रूप में ये ही मूलप्रकृति, ईश्वर, हिरण्यगर्भ और विराट हैं। त्रिकोणमंडलवासिनी होने के कारण भगवती या त्रिपुरा नाम है। यथा :

त्रिमूर्ति सर्गाच्च परा भवत्वात त्रयीमयत्वाच्च परैव देव्याः।

लये त्रिलोक यामपि पूरणत्वात प्रायोअम्बिकाया स्त्रिपुरेति नाम।।

त्रिलोकमंडलं यस्या भूपुरं च त्रिरेखकं मंत्रोअपि त्र्यक्षरः प्रोक्तस्तथा रूपत्रयं पुनः।

त्रिविधा कुंडलीशक्तिस्त्रि देवानां च सृस्ट्ये सर्वत्रयं त्रयं यस्मात्तस्मात्तु त्रिपुरामताः।।

कामकलाविलास में इस प्रकार कहा गया है :

माता मानं मेयं बिंदुत्रय भिन्न बीज रूपाणि।

धामत्रय पीठत्रय शक्तित्रय भेद भावितान्यपि च।।

तेषु क्रमेण लिंगत्रितयं तद्वच्च मातृकात्रितयम।

इत्थं त्रितयपुरीया तुरीय पाठादि भेदिनी विद्या।।

इति कामकला विद्या देवी चक्रक्रमात्मिका सेयं।

विदिता येन स मुक्तो भवति महात्रिपुरसुंदरी रूपः।। 

                                     -क्रमशः

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