विपुलस्वान मुनि  की कथा

गतांक से आगे…

यह सुनकर उसने कहा, नर मांस मिलने पर मैं पूर्णरूप से संतृप्त हो जाऊंगा। ऋषि ने पक्षी से कहा, तुम्हारी कुमारावस्था एवं युवावस्था समाप्त हो चुकी है, अब तुम बुढ़ापे की अवस्था में हो। इस अवस्था में मनुष्य की सभी इच्छाएं दूर हो जाती हैं। फिर भी ऐसा क्यों है कि तुम इतने क्रूर हृदय हो? कहां तो मनुष्य का मांस और कहां तुम्हारी अंतिम अवस्था, इससे तो यही सिद्ध होता अथवा मेरा यह सब कहना निष्प्रायोजन है, क्योंकि जब मैंने वचन दे दिया, तब तो तुम्हें भोजन देना ही है । उससे ऐसा कहकर और नर मांस देने का निश्चय करके विप्रवर सुकृष ने अविलंब हम लोगों को पुकारा और हमारे गुणों की प्रशंसा की।

तत्पश्चात उन्होंने हम लोगों से जो विनम्रतापूर्वक हाथ जोड़े बैठे थे,बड़ा कठोर वचन कहा,अरे पुत्रों ! तुम सब आत्मज्ञानी होकर पूर्ण मनोरथ हो चुके हो, किंतु जैसे मुझ पर अतिथि ऋण है, वैसे ही तुम पर भी है क्योंकि तुम्हीं मेरे पुत्र हो। यदि तुम अपने गुरु को जो तुम्हारा एकमात्र पिता है, पूज्य मानते हो तो निष्कलुष हृदय से मैं जैसा कहता हूं, वैसा करो।

उनके ऐसा कहने पर गुरु के प्रति श्रद्धालू हम लोगों के मुंह से निकल पड़ा कि आपका जो भी आदेश होगा, उसके विषय में आप यहीं सोचें कि उसका पालन हो गया। ऋषि ने कहा भूख और प्यास से व्याकुल हुआ यह पक्षी मेरी शरण में आया है। तुम लोगों के मांस से इसकी क्षणभर के लिए तृप्ति हो जाती तो अच्छा होता। तुम लोगों के रक्त से इसकी प्यास बुझ जाए, इसके लिए तुम लोग अविलंब तैयार हो जाओ। यह सुनकर हम लोग बड़े दुःखी हुए और हमारा शरीर कांप उठा, जिससे हमारे भीतर का भय बाहर निकल पड़ा और हम कह उठे, ओह! यह काम हमसे नहीं हो सकता। हम लोगों की इस प्रकार की बात सुनकर सुकृष मुनि क्रोध से जल-भुन उठे और बोले, तुम लोगों ने मुझे वचन देकर भी उसके अनुसार कार्य नहीं किया इसलिए मेरी श्रापाग्नि में जलकर पक्षी योनि में जन्म लोगे। हम लोगों से ऐसा कहकर उन्होंने उस पक्षी से कहा, पक्षिराज ! मुझे अपना अंत्येष्टि संस्कार और शास्त्रीय विधि से श्राद्धादि कर लेने दो, इसके बाद तुम निश्चिंत होकर यहीं मुझे खा लेना । मैंने अपना ही शरीर तुम्हारे लिए भक्ष्य बना दिया है। आप अपना योगबल से अपना शरीर छोड़ दें, क्योंकि मैं जीवित जंतु को नहीं खाता। पक्षी ने कहा, पक्षी के इस वचन को सुनकर मुनि सुकृष योगयुक्त हो गए। उनके शरीर त्याग के निश्चय को जानकर इंद्र ने अपना वास्तविक शरीर धारण कर लिया और कहा, विप्रवर! आप अपनी बुद्धि से ज्ञातव्य वस्तु को ज्ञान लीजिए। आप महाबुद्धिमान और परम पवित्र हैं। आपकी परीक्षा लेने के लिए ही मैंने यह अपराध किया है। आज से आप में ऐंद्र अथवा परमैश्वर्ययुक्त ज्ञान प्रादुर्भूत होगा और आपके तपश्चरण तथा धर्म, कर्म में कोई विघ्न उपस्थित न होगा। ऐसा कहकर जब इंद्र चले गए, तब हम लोगों ने अपने क्रुद्ध पिता महामुनि सुकृष से सिर झुकाकर निवेदन किया,पिताजी! हम मृत्यु से भयभीत हो गए थे, हमें जीवन से मोह हो गया था, आप हम दोनों को क्षमा दान दें। तब उन्होंने कहा, मेरे बच्चों ! मेरे मुंह से जो बात निकल चुकी है, वह कभी मिथ्या न होगी। आज तक मेरी वाणी से असत्य कभी भी नहीं निकला है। मुझे तो ऐसा प्रतीत होता है कि दैव ही समर्थ है और पौरुष व्यर्थ है।

भाग्य से प्रेरित होने से ही मुझसे ऐसा अचिंतित अकार्य हो गया है। अब तुम लोगों ने मेरे सामने नतमस्तक होकर मुझे प्रसन्न किया है इसलिए पक्षी की योनि में पहुंच जाने पर भी तुम लोग परमज्ञान को प्राप्त कर लोगे। भगवन! इस प्रकार पहले दुर्दैववश पिता सुकृष ऋषि ने हमें श्राप दिया था, जिससे बहुत समय के बाद हम लोगों ने दूसरी योनि में जन्म लिया है। उनकी ऐसी बात सुनकर परमैश्वर्यवान शमीक मुनि ने समस्त समीपवर्ती द्विजगमों को संबोधित करके कहा, मैंने आप लोगों के समक्ष पहले ही कहा था कि ये पक्षी साधारण पक्षी नहीं हैं, ये परमज्ञानी हैं, जो अमानुषिक युद्ध में भी मरने से बच गए। इसके बाद प्रसन्न हृदय महात्मा शमीक मुनि की आज्ञा पाकर वे पक्षी पर्वतों में श्रेष्ठ, वृक्षों और लताओं से भरे विंध्याचल पर्वत पर चले गए।                 -समाप्त