शिक्षा अवमूल्यन को जिम्मेदार कौन ?

शंकर लाल वासिष्ठ

लेखक, सोलन से हैं

क्या हम कक्षा के स्तरों की उपाधियां देकर अनपढ़ समूह राष्ट्र को उपहार नहीं दे रहे हैं, जो किसी भी क्षेत्र में सक्षम नहीं हैं? अतः इसका उपचार एक- दूसरे पर दोषारोपण से नहीं, अपितु प्रत्येक स्तर पर गंभीर चिंतन, दूरदर्शिता, फलदायी नीतिनिर्धारण व कार्यान्वयन है…

गतांक से आगे…

वर्तमान मेें भी हिमाचल प्रदेश के अधिकांश विद्यालय प्रभारी अध्यापक पर किसी दूसरे विषय को थोपता है, तो वह अपने विषय से भी जाता रहता है। दूसरे विषय की चिंता में वह अपने विषय में भी शिथिल हो जाता है। आज अध्यापक को अध्यापक नहीं, पर मशीन अधिक समझा जाने लगा है, उसे कितना व्यस्त रखा जाए, उसी में प्रशासन की कुशलता है, जबकि शिक्षक का मानसिक स्तर संतुलित, दबाव रहित व तरोताजा रहना चाहिए, तभी वह सही शिक्षा दे सकता है। साक्षरता के आंकडे़ भले भी समृद्ध हो चले हों, परंतु सही मायने में शिक्षा का स्तर स्वस्थ व समृद्ध नहीं हो पा रहा है। शिक्षा से जो समाज में परिर्वतन आना चाहिए था वह किसी भी स्तर पर अपनी संपन्न उपस्थिति दर्ज नहीं कर पा रहा है। शहरों में किसी हद तक सुविधाएं हैं और अधिकांश गांव अभी भी सुविधा विहीन अवस्था में कार्य चलाने मात्र का काम कर रहे हैं। परिणामस्वरूप असुविधाओं के चलते हमारी शिक्षा संस्कार विहीन होकर, अकर्मण्यता, भ्रष्टाचार व अंतहीन-लिप्सा से ग्रसित पढे़-लिखे अनपढ़ोें की पौध तैयार कर रही है।

बौद्धिक व संपन्नता की दृष्टि से हम भारतीय समाज को तीन भागों में बांट सकते हैं। विकसित, विकासशील और अविकसित। विकसित और विकासशील वर्ग शिक्षा के महत्त्व को जानते हैं तथा अपनी-अपनी क्षमतानुसार अपनी भावी-पीढ़ी को अच्छी शिक्षा से संपूर्ण नागरिक बनाने का प्रयास कर रहे हैं। परंतु अविकसित समाज इससे कोसों दूर है, वह तो मात्र जटराग्नि से त्रस्त है, व्यथित है। वह अपने घर के काम की अहमियत को अधिक मानता है न ही शिक्षा को। क्योंकि वह रोजी-रोटी को लक्ष्य मानता है। ऐसा नहीं है कि सरकारों ने प्रयास नहीं किए। बहुत कारगर प्रयास किए हैं जैसे-निःशुल्क शिक्षा, निःशुल्क दोपहर का भोजन, वर्दी-पुस्तकें निःशुल्क और किसी सीमा तक लड़कियों को स्नातक स्तर तक की अनिवार्य शिक्षा। यह वास्तव में ही सराहनीय प्रयास है। परंतु इतने प्रयासों के बावजूद शिक्षा विद्यार्थी को निपुण न बनाए, तो उन कारणों का चिंतन आवश्यक है। वर्तमान नियमानुसार आठवीं तक कोई फेल नहीं कहलाता।

जिन घरों में स्वस्थ-संपन्न वातावरण नहीं है, वहां पर अनेक कुप्रवृत्तियां भी निवास करती हैं। अगर ऐसा नहीं है तो रोजी-रोटी का चक्र उन्हें किसी स्वस्थ परंपरा की ओर नहीं जाने देता, एकाध अपवाद को छोड़कर जठराग्नि का संघर्ष और अस्वस्थ वातावरण में विद्यार्थी और अभिभावक को इस बात का परिचय करवा देता है कि आठवीं तक फेल नहीं होंगे, एक बार प्रवेश लेने के बाद नाम नहीं कटेगा, परीक्षा देने से कोई रोक नहीं सकता, विद्यालय जाओ या न जाओ, व्यर्थ परिश्रम करने की क्या आवश्यकता है, पास तो हो ही जाएंगे। आज प्रश्न अति गंभीर बनकर समक्ष खड़ा है। इस विषय का आकलन व विचार करना आवश्यक है। आठवीं के बाद जब विद्यार्थी बिना परिश्रम के कक्षा में आता है, तो पूर्ण रूप से निरक्षर लगता है। ऐसे बच्चों से यदि आप दसवीं में परिणाम चाहें, तो क्या यह संभव है? दिवास्वप्न देखने की बजाय हमें धरातल की तहों को टटोलना पड़ेगा, नहीं तो यह प्रश्न बार-बार सिर उठाएगा। क्या हम कक्षा के स्तरों की उपाधियां देकर अनपढ़ समूह राष्ट्र को उपहार नहीं दे रहे हैं, जो किसी भी क्षेत्र में सक्षम नहीं है? मैं कदापि इस बात से सहमति नहीं रखता कि विद्यार्थियों को डांटा-फटकारा या दंडित किया जाए। मेरा मानना है कि वह शिक्षक कमजोर होते हैं, जो कक्षा में जाकर तानाशाह बनकर विद्यार्थियों की उत्सुकता, आकांक्षा या मनोभावनाओं का दमन करते हैं। इसका सीधा-सीधा अर्थ है कि उनके पास विद्यार्थी के लिए कुछ नया नहीं है, क्योंकि आज का विद्यार्थी बाल्यकाल से ही घर व पार्श्व परिवेश से बहुत कुछ सीखकर आता है। शिक्षक को तो मात्र उसकी उस क्षमता का आकलन कर सही दिशा प्रदान करना है। इसके अलावा विद्यालयों में शिक्षक का कार्य अध्ययन करना, करवाना व इससे संबंधित जो भी प्रणाली है, उसी से संपृक्त होना चाहिए।

वर्ष-भर गैर-शिक्षण कार्यों में कितने शिक्षक बाहर रहे, इसका विवरण विद्यालय से मिल जाएगा। हर वर्ष नए मतदाताओं की सूचियां तैयार करना, मतदाता कार्ड वितरण करना, चुनाव करवाना, सैनसिज आदि-आदि। समस्त कार्य अधिकांश शिक्षकों से ही करवाए जाते हैं। इन कारणों से कुछ शिक्षक महीनों तक विद्यालय का मुंह नहीं देख पाते। आसानी से समझा जा सकता है कि सरकारी विद्यालयों में पढ़ने वाले विद्यार्थी इस अंतराल में क्या करते होंगे। शिक्षा विभाग में स्थानांतरण की कोई पुख्ता नीति नहीं है। जिसकी सरकार में चलती है वह जब चाहे अपना स्थानांतरण मनचाहे स्थान पर करवा लेता है। हिमाचल प्रदेश के अधिकांश विद्यालयों में पर्याप्त पुस्तकालय नहीं हैं। अतः इसका उपचार एक-दूसरे पर दोषारोपण से नहीं, अपितु प्रत्येक स्तर पर गंभीर चिंतन, दूरदर्शिता, फलदायी नीतिनिर्धारण व कार्यान्वयन है, तभी हम भावी पीढ़ी को सक्षम बनाकर राष्ट्र को समृद्ध बना सकेंगे।

(समाप्त)