हिमाचली पुरुषार्थ : सेवानिवृत्ति के बाद भी शिक्षा की लौ जगाते मैहताब

घर में गरीबी होने के कारण मैहताब सिंह को अगली पढ़ाई करना मुश्किल हो गया।  जैसे-तैसे इन्होंने स्वयं ही निजी तौर पर व्यवस्था करके दसवीं कक्षा तक की पढ़ाई की। दसवीं के बाद मैहताब सिंह भाखड़ा प्रोजेक्ट मंे जॉब करने लगे। लेकिन, बच्चों को शिक्षा देकर उनका भविष्य संवारने की कसक पाले मैहताब सिंह ने नौकरी छोड़ दी। फिर 1960 में गालियां स्कूल में साक्षात्कार देकर जेबीटी लग गए…

शिक्षा से कोई बच्चा वंचित न रहे की कसक पाले बिलासपुर जिला के मलोट गांव के रिटायर्ड टीचर मैहताब सिंह दूसरे शिक्षकों के लिए मिसाल बने हैं। मैहताब सिंह उम्र के आठ दशक पूरे होने के बावजूद स्कूल में शिक्षकों की कमी होने पर बच्चों को निशुल्क शिक्षा दे रहे हैं, जिससे बच्चों का भविष्य संवर रहा है। मैहताब सिंह का मानना है कि जब जिंदगी में शिक्षक का किरदार मिल गया, तो उसको आजीवन निभाने का संकल्प ले लिया। गरीब व असहाय बच्चों को पढ़ाने में बेहद प्रसन्नता महसूस होती है। पिता गोपाला राम व माता कारजू देवी के घर 22 जुलाई, 1936 को जन्मे मैहताब सिंह की प्रारंभिक शिक्षा भराड़ी स्कूल में हुई। इन्होंने हटवाड़ स्कूल से आठवीं तक की पढ़ाई की। घर में गरीबी होने के कारण मैहताब सिंह को अगली पढ़ाई करना मुश्किल हो गया।  जैसे-तैसे इन्होंने स्वयं ही निजी तौर पर व्यवस्था करके दसवीं कक्षा तक की पढ़ाई की। दसवीं के बाद मैहताब सिंह भाखड़ा प्रोजेक्ट मंे जॉब करने लगे। लेकिन, बच्चों को शिक्षा देकर उनका भविष्य संवारने की कसक पाले मैहताब सिंह ने नौकरी छोड़ दी। फिर 1960 में गालियां स्कूल में साक्षात्कार देकर जेबीटी लग गए।  इसके बाद इन्होंने बच्चों को भी पढ़ाया तथा बीए भी की। श्रीनगर से बीएड की। स्कूल में भी नौकरी के दौरान जरूरतमंद बच्चों की मदद करना उनकी हॉबी बन गई थी। इसके अलावा कई सड़कें तथा कई रास्तों के निर्माण के अलावा लड़कियों की शादी में मदद करना उनकी आदतों में शुमार है। रिटायर्ड होने के बाद गांव के बच्चों को निशुल्क शिक्षा देते हैं। जब भी स्कूल में शिक्षकों की कमी होती है, तो मैहताब सिंह शिक्षा की लौ जगाने घर से छाता उठाकर कई किलोमीटर पैदल चलकर कुठेड़ा-मरहाणा स्कूल में पहुंच जाते हैं। शिक्षक मैहताब में सेवानिवृत्ति के 23 साल बाद भी बच्चों को शिक्षा प्रदन करने जज्बा बरकरार है। मलोट गांव के मैहताब सिंह वर्ष 1995 को सेवानिवत्त होने के बाद इन दिनों कुठेड़ा मरहाणा स्कूल पहुंचकर बच्चों को निशुल्क शिक्षा देते हैं। मैहताब सिंह धीमान वर्ष 1960 से लेकर 1995 तक सरकारी स्कूलों में शिक्षक रहे। रिटायर होने के बाद उनका शिक्षा प्रदान करने का जुनून बरकरार रहा और स्कूल में पहुंच कर बच्चांे को शिक्षा दे रहे हैं। पढ़ाने का शौक ऐसा कि राह चलते भी बच्चे जिज्ञासा प्रकट करते तो वह वहीं उसका उत्तर बताते हैं। शिक्षादान के जरिए वह राष्ट्र निर्माण में अपनी महती भूमिका निभा रहे हैं। मैहताब सिंह धीमान का कहना है कि विद्यालय में शिक्षक की कमी होने पर बच्चों की पढ़ाई बाधित न हो, इसके चलते वह स्कूल में बच्चों को पढ़ाने के लिए पहुंचते हैं। बताते चलें कि मलोट गांव के निवासी मैहताब सिंह एक साधारण परिवार से हैं। भाइयों का शिक्षा के प्रति सहारा मिलने के बाद शिक्षा प्राप्त कर वह सरकारी स्कूल में अध्यापक के पद पर नियुक्त हुए। इसके बाद उन्होंने छोटे भाई को भी शिक्षा के लिए प्रेरित किया। बाद में उनके छोटे भाई भी एक शिक्षक के पद पर तैनात हुए। मैहताब सिंह 1995 को दधोल स्कूल से शिक्षा जगत से सेवानिवृत हुए। इसके उपरांत कुठेड़ा- मरहाणा स्कूल में जब-जब शिक्षकों की कमी हुई, तब-तब उन्होंने स्कूल पहुंच कर बच्चों को शिक्षा प्रदान की।

जब रू-ब-रू हुए… आठवीं तक फेल न करने से शिक्षा में गुणवत्ता घटी है…

सेवानिवृत्ति के बाद आराम की जिंदगी बिताने के बजाय आपने सेवा की कठिन राह चुनी । क्या कारण रहा?

स्कूल की स्थिति को देखकर। स्कूल में बार-बार हालात खराब होने के कारण सेवानिवृत्ति के बाद अध्यापकों के पद न भरना, बच्चों का रुख प्राइवेट स्कूल की तरफ होने लगा है। स्कूल बंद न हो जाए, इसलिए मुझे यह कदम उठाना पड़ा। यह बस सामाजिक उत्थान के कार्य है, जो सेवानिवृत्ति के बाद भी किए जा सकते हैं।

जरूरतमंद बच्चों को ज्ञान बांटकर मिलने वाला सुकून परिवार संग समय बिताने की संतुष्टि से किस प्रकार भिन्न है?

घरेलू वातावरण से स्कूल का वातावरण मुझे अच्छा लगता है। समय पर उठकर समय पर स्कूल पहुंचना आदत सी बन गई है। इससे मुझे सुख मिलता है। पुरानी व नई शिक्षा पद्धति में आप क्या अंतर पाते हैं पुरानी पद्धति सैकड़ों वर्षों से चलती आ रही है, जिसे सरकार ने बदलकर गलत कदम उठाया  है। पहली से आठवीं कक्षा तक किसी को फेल न करना बहुत ही गलत है। इस प्रकार के निमय से बच्चों ने पढ़ना छोड़ दिया कि हम पास तो हो ही जाएंगे। अध्यापकों ने भी यही सोचा है कि बच्चों को पढ़ाएं या न पढ़ाएं, बच्चों ने तो पास होना ही है। बच्चों के परिणाम की जिम्मेदारी अब किसकी रही है। नौवीं तक के बच्चों को स्वर व्यंजन का ज्ञान तक नहीं है। 55 फीसदी स्कूल का रिजल्ट 0 फीसदी रहा और उल्टा सरकार टीचर से ही जवाब मांग रही क्यों हुआ, कैसे हुआ। जोकि पुरानी और नई पद्धति में अंतर को दिखाता है।

तीन दशक पहले स्कूली पाठ्यक्रम जीवन के अधिक नजदीक था या अब ज्यादा करीब है?

तीन दशक पहले तख्ती, कलम व स्लेट होते थे। आज ये सब प्रारूप बदल चुके हैं, जिससे बच्चों के लेख बिगड़ गए हैं। अक्षर बनावट बिगड़ रही है। पहले बच्चों को शिक्षक के दंड का भय होता था, भले शिक्षक दंड दे या न दे। आजकल की सरकारों ने स्कूलों को गलत आदेश दिया कि विद्यार्थियों को न तो शारीरिक न तो मानसिक दंड दिया जाए।

आधुनिक किशोर स्कूली छात्रों को आप कैसे परिभाषित करेंगे?

आधुनिक स्कूली छात्र नशों की गिरफ्त में ज्यादा आ  रहे हैं, क्योंकि स्कूलों में बच्चों को अध्यापकों का भय नहीं रहा है।

एक छात्र का भविष्य संवारने में अध्यापक के व्यक्तिगत ज्ञान व चरित्र की क्या भूमिका है?

अध्यापक का अपना चरित्र अच्छा होना चाहिए और शिक्षा में भी पारंगत होना चाहिए। ऐसे चरित्र से छात्र खुद भी सीखने की चाहत रखते हैं।

बेहतर व सुविधाजनक स्कूल भवन या सुशिक्षित शिक्षक, दोनों में से अधिक आवश्यक क्या है?

ये दोनों मूलभूत सुविधाएं जरूरी हैं, परंतु महत्त्वपूर्ण भूमिका अध्यापकों की ही होती है।

गांव-गांव में सरकारी स्कूल खोलने से क्या शिक्षा की गुणवत्ता पर विपरीत प्रभाव पड़ रहा है?

प्राथमिक स्कूल जरूरत के अनुसार खोले जाने चाहिएं और स्कूलों का दर्जा भी आवश्यकतानुसार ही बढ़ना चाहिए। राजनीतिक लाभ के लिए स्कूलों का दर्जा बढ़ाया जा रहा है।

छात्रों को सुधारने में सरकारी स्कूल निजी विद्यालयों से क्यों निरंतर पिछड़ रहे हैं?

यह सरकारों की गलती है कि स्कूलों की जगह-जगह बढ़ोतरी से शिक्षकों की कमी से शिक्षा की गुणवत्ता पर प्रभाव पड़ रहा है। बच्चों की संख्या के आधार पर शिक्षकों की तैनाती नहीं है।

हिमाचल में स्कूली शिक्षा क्या सही राह पर है? अगर नहीं, तो क्या किया जाना चाहिए?

हिमाचल में स्कूली शिक्षा सही राह पर नहीं है। इसके लिए पुरानी शिक्षा पद्धति लागू की जानी चाहिए।

हिमाचल के सरकारी स्कूलों में मिड-डे मील जैसी  योजनाएं क्या आवश्यक हैं, या इनसे पढ़ाई के बहुमूल्य समय का नुकसान होता है?

 मिड-डे-मील प्राथमिक स्कूल तक होना चाहिए। छोटे बच्चे स्कूल पहुंच जाते हैं, उनको भोजन की जरूरत पड़ जाती है, इससे कोई नुकसान नहीं है। हां, इसमें शिक्षकों को बेवजह इतना न व्यस्त किया जाए कि शैक्षणिक गतिविधियां प्रभावित हों।

क्या शिक्षकों को छात्रों के परीक्षा परिणाम के लिए उत्तरदायी ठहराया जाना चाहिए?

हां, शिक्षक की परिणाम की पूरी जिम्मेदारी होती है।

आपको लगता है कि सरकारी अध्यापक शिक्षण से अधिक सुविधाजनक स्थान पर  तबादले करवाने में व्यस्त रहते हैं। आपका क्या मत है?

स्थानांतरण की सरकारों की कोई नीति नहीं है। आसामयिक स्थानांतरण नहीं होने चाहिए।

आपकी भविष्य के लिए कोई ऐसी योजना जो अभी पूरी होनी है?

इनसान की इच्छाएं कभी पूरी नहीं होती।

आप स्वयं क्या पढ़ते हैं?

मैं अखबार के अतिरिक्त सिर्फ रामायण का अध्ययन करता हूं, जिसमें चरित्र निर्माण सिखाया गया है।

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