अनिल की कविताई गागर में है साहित्यिक सागर

मेरी किताब के अंश :

सीधे लेखक से

किस्त : 3

ऐसे समय में जबकि अखबारों में साहित्य के दर्शन सिमटते जा रहे हैं, ‘दिव्य हिमाचल’ ने साहित्यिक सरोकार के लिए एक नई सीरीज शुरू की है। लेखक क्यों रचना करता है, उसकी मूल भावना क्या रहती है, संवेदना की गागर में उसका सागर क्या है, साहित्य में उसका योगदान तथा अनुभव क्या हैं, इन्हीं विषयों पर राय व्यक्त करते लेखक से रूबरू होने का मौका यह सीरीज उपलब्ध करवाएगी। सीरीज की तीसरी किस्त में पेश है साहित्यकार अनिल शर्मा ‘नील’ का साहित्यिक संसार…

ध्वनि प्रतिध्वनि नामक काव्य संग्रह में विभिन्न रसों से सराबोर लगभग 111 कविताएं परोसी गई हैं। कवि काव्य में छंदबद्धता या संतुलन में नहीं बंधता, लेकिन कविताओं का भाव और शब्द चयन इस सुंदरता से किया गया है कि ज्यों गुलाब के फूल पर ओस की बूंदें चमकती हों। अनिल शर्मा ‘नील’ का जन्म 01 नवंबर 1973 को बिलासपुर जिला के निचली भटेड़ में माता चंपा देवी और पिता नंद लाल के घर हुआ। ग्राम्य परिवेश में पले-बढ़े अनिल बचपन से ही मितभाषी और भावुक प्रवृत्ति के हैं। तीन घटनाएं इनके साथ ऐसी घटित हुईं जिन्होंने इनके बालमन को झकझोर कर रख दिया और वह घटनाएं आज भी इनके मानसपटल पर बार-बार आती रहती हैं। जब दसवीं-बारहवीं में अध्ययनरत थे तो उस वक्त एक हिंदी दैनिक अखबार विद्यालय के पुस्तकालय में आया करती थी। इसके संपादकीय पृष्ठ पर छपे लेख पढ़-देख के ज़हन में सवाल उठते कि वो किस तरह के व्यक्ति होंगे जो इतने बडे़-बडे़ लेख लिखते हैं। दो सरकारी स्कूलों और तीन प्राइवेट स्कूलों में अपनी सेवाएं देने के अलावा करीब एक दर्जन प्राइवेट कंपनियों में कार्य किया। बेरोजगारी तो जैसे निचोड़ने पर ही तुली रही। अनिल कुमार के अनुसार पारिवारिक परिस्थितियों और बेरोजगारी के दंश का परिणाम यह हुआ कि मुझे माइग्रेन ने जकड़ लिया, लेकिन संघर्ष जारी रहा। उम्मीद बरकरार रही। मेहनत करना नहीं छोड़ा। मलाल है कि जैसा चाहा वैसा मिला नहीं। कॉलेज टाइम से ही मैं कुछ न कुछ लिखता रहा हूं। हिंदी, अंग्रेजी और कहलूरी बिलासपुरी में निबंध, कविताएं और लघु कथाएं लिखी हैं। खुशवंत सिंह, तसलीमा नसरीन, भानु धमीजा, शांता कुमार, श्रीनिवास जोशी, वेद प्रताप वैदिक, डॉ. सरदार अंजुम, कंचन शर्मा, बीआर कौंडल, पंडित जय कुमार, कर्नल जसवंत सिंह चंदेल, रोशन लाल शर्मा की रचनाओं से बहुत प्रभावित हुआ हूं। वर्ष 1997 के पश्चात  मैंने अपने निबंधों, कविताओं और लघु कथाओं को डायरियों में कलमबद्ध करना शुरू किया। वर्ष 2004 में संयोग ऐसा हुआ कि एक दैनिक अखबार में बतौर पत्रकार कार्य करने का अवसर मिला। फिर पंजाब के एक अखबार में अपनी सेवाएं दी। उसके बाद मैंने पत्रकारिता तो छोड़ दी, लेकिन समसामयिक, धार्मिक, ऐतिहासिक, सांस्कृतिक आदि विषयों पर रचनाएं लिखता रहा। यह रचनाएं ‘दिव्य हिमाचल’ के साथ कुछ अन्य दैनिक समाचारपत्रों और पत्रिकाओं जैसे हैड न्यूज हिमाचल, शब्द मंच, हिमाचल केसरी आदि में छपती रही हैं।

बिलासपुर लेखक संघ ने मुझ जैसे नौसिखिए को मंच प्रदान किया। दिव्य हिमाचल द्वारा नियमित करवाई जाने वाली निबंध प्रतियोगिताओं में दिनांक 11 दिसंबर 2012 को ‘कैसे पैदा होगी विकास की राजनीतिक संस्कृति’ और 06 जनवरी 2016 को ‘जाम कब बंद करेगा प्रदेश को रुलाना’ के लिए प्रथम पुरस्कार प्रदान किया गया। 15 जनवरी 2013 को ‘नई सरकार के कड़वे घूंट’ के लिए द्वितीय पुरस्कार दिया गया। आम आदमी की तरह लेखक पंचतत्त्वों से बना हुआ एक नश्वर प्राणी है। उसका भी घर-परिवार होता है और इस तरह वह भी समाज का अभिन्न अंग बन जाता है। समाज में रहते हुए वह सुख-दुख में एक-दूसरे का हाथ बंटाता रहता है। प्रेम, दया, करुणा, शोक, घृणा, सहानुभूति जैसे संवेग उसके जीवन को प्रभावित करते हैं। यह संवेग उसके मन को उद्वेलित करते हैं। संवेदनाओं की अनुभूति उसके दिल-दिमाग पर असर डालती है। आम आदमी खुशी में गीत गाता है, नाचता है और दुख में रोता-चिल्लाता है, लेकिन लेखक अपने इन भावों को कागज पर उकेरता रहता है। मेरे साथ भी शायद ऐसा ही हुआ। कविताएं, साहित्यिक पृष्ठ और अखबारों के संपादकीय पृष्ठ पढ़ना मेरा शौक रहा है। जहां तक मुझे याद है 1997 से मैंने अपनी रचनाओं को संकलित करना शुरू किया है। हमारे आसपास घटित घटनाएं, समाज में व्याप्त बुराइयां व समस्याएं और प्राकृतिक हलचलें मेरे मन को विचलित करती रहती हैं। मन में विचारों का द्वंद्व चला रहता है। कुछ प्रश्न मानसपटल पर प्रहार करते हैं। गलत और अन्याय परेशान कर देते हैं। एक अदृश्य शक्ति मुझे प्रेरित करती रहती और उसी शक्ति की आवाज मेरे कानों में गूंजती हुई कहती….कर्त्तव्य का बोध कराके, लक्ष्य पे रहो अडिग, वो कह जाती है अर्जुन सरीखे निशाना साधो वो पैगाम दे जाती है। यही आवाज मेरे प्रथम हिंदी काव्य संग्रह ध्वनि-प्रतिध्वनि की प्रेरणा स्त्रोत बनी। लेखक अपने अनुभव और अनुभूति से सृजन साधना में लगा रहता है। इसी साधना के थोड़े से शाब्दिक मोतियों को चुनकर एक कविता रूपी माला को तैयार कर देता है और यही कविता थोडे़ से शब्दों में बहुत कुछ कह जाती है। यही इस सृजन करने वाले संवेदनशील प्राणी की गागर है जिसमें वह साहित्यिक सागर को समाहित करता है। अनिल के अनुसार मैंने भी 111 रंगों के मोती चुनकर एक माला साहित्यिक जगत को पेश की है जिसमें आर्थिक, सामाजिक, धार्मिक और राजनीतिक परिवेश को आधार बनाया गया है। कविता बाबा कल्याणकारी (धार्मिक), लुहणू में योग गंगा, आध्यात्मिक, नकल कुरीति, इनसान हो गया अंधा, फेर दिया पानी और कयामत, आतंकवाद, पर्यावरण, सावन, बर्फबारी, शैतान मेघा, जल, आंधी, मानसून, वातावरण, बेरोजगार, जल संकट, बंदर, क्यों फांसी लगाई, दाल, मुहिम, क्या होने लगा, छीन रहा निवाला, लालच शक समस्याओं, बाइक ले लो, स्त्री स्वभाव और झुक गई संसद, कैसी ये रामलीला, अन्ना की आंधी, सीडी, यूं छेद किया, वोटर स्तुति, आ गए चुनाव, ये कैसी आजादी, क्या कहना, राजनीति आदि एक विशेष संदेश देती हैं। साहित्य के इसी परचम के तले एक लेखक अपनी रचनाओं से साहित्य जगत को संपन्न बनाने में दिन-रात जुटा रहता है। गाय कविता में  लोगों का स्वार्थी भाव और गाय की बेकद्री पर कुछ यूं फरमाया है… फिरती रहती वो सड़क-सड़क, पेट भरती वो भटक-भटक तोड़ दिया है उससे नाता कहा करते थे जिसे माता। निरंतर घट रहे वनों पर चिंता व्यक्त करते हुए वृक्ष की चेतावनी में मनुष्य को सचेत करते हुए क्या खूब लिखा है…. इक दिन ऐसा भी आएगा, धरती बंजर हो जाएगी, न मिलेगी जलाने को लकड़ी, ठंडी छांव भी न मिल पाएगी। संयुक्त परिवारों के टूटकर एकल परिवारों में विभाजित होने पर घर-मकान कविता की पंक्तियां ध्यान आकर्षित करती हैं….बाबा चाचा ताया पिता जहां सभी मिल जुल कर इकट्ठे रहते थे देर रात तक चूल्हे के पास, बैठकर घंटों बातें करते रहते थे जबसे घर मकान हो गया, प्यार प्रेम का दायरा कम हो गया चाचा ताया पड़ोसी बन गया। बेशक हमारी सरकारें महिला सुरक्षा का ढिंढोरा पीटती हैं। नारी सशक्तिकरण को लेकर कई कानून बनाए गए हैं और उन्हें पुरुषों के बराबरी का हक देने की बात की जाती है लेकिन नारी शक्ति आज असुरक्षित है। देखिए पंक्तियां कविता बेबस सबला की…महिलाओं का बाहर निकलना हुआ मुहाल, कब कहां पर झपट पडे़ दरिंदे आज, बेबस तड़फती तथाकथित सबला, क्या कोई कृष्ण जन्म लेगा आज। वर्ष 2013 में केदारनाथ में आए जल प्रलय के मंजर की दास्तान को बारिश का तांडव में इस तरह बयान किया है… अपनों के बिछुड़ने का गम, हरेक की रूह कंपा देती है, न बचे घर न घाट, शिव की धाम भी तबाह हो जाती है। नूतन वर्ष की नवभोर में खुशियों की ऐसी बरसात हो जिसमें कवि मन कामना करता है… न कोई बैर भाव न कोई बड़ा-छोटा न हो कोई जात-पात। ऐसी हो नए साल की प्रभात कभी न हो बाजार मंद बारम्बार न होवे सियासी जंग। बेरोजगारी, भ्रष्टाचार,  स्वार्थ की राजनीति, किसानों की स्थिति, आतंक का शिकार आम आदमी, व्यवस्था के सामने लाचार गरीब, धर्म की आड़ में आम जनता को लूटते साधु भेष धारी, रेप-गैंगरेप जैसे वाकया झकझोर कर रख देते हैं। भले ही लेखक अपनी रचनाओं में भावों, संवेदनाओं और अनुभूति का पुट डाल कर श्रेष्ठ कृति पाठकों के लिए प्रस्तुत कर देता है लेकिन वह अपनी संवेदनाओं को आमजन की संवेदना के रूप में पेश कर उसे पाठकों के अवलोकन के लिए छोड़ देता है।

अश्वनी पंडित, बिलासपुर

जल्द आएगा निबंध संग्रह

मेरी एक और पुस्तक प्रकाशनाधीन है। यह कोण-दृष्टिकोण नाम से प्रकाशित हो रही है। इस पुस्तक की छपाई का कार्य शंकर प्रिंटिंग प्रेस घुमारवीं (बिलासपुर) में  हो रहा है। यह हिंदी निबंध संग्रह शीघ्र ही पाठकों के हाथों में होगा।